समीर दीवान -
आम चुनाव के नतीजों के बाद सरकार भी बन गई। लोकतंत्र की परिकल्पना के साथ ही इसके हिस्सेदारों की तकदीर भी पांच -पांच साल के लिए तय कर ही दी गई है। कितने ही आत्मविश्वासी और कर्मठ नेता और पार्टियां क्यों न हों हर किसी को जनादेश तो लेना ही होता है। सात दशक से भी ज्यादा से देश में कई तरह के नेतृत्व और पार्टियों ने सत्ता पाने के बाद उस पर काबिज रहने की हरचंद कोशिशें की जिसका एक मात्र रास्ता आम चुनाव से होकर ही जाता है। इन कोशिशों में धार कितनी है यह जनादेश के साथ ही तय हो जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एनडीए के साथ तीसरी बार सरकार तो बना ली पर जनादेश की शक्लो- सूरत ने यह बता दिया कि लाख तरकीबें की जाएं पर लोग हैं कि उनके मन में असंतोष जाग ही जाता है। एनडीए के साथ भले की भाजपा अकेले के दम पर 4 सौ पार के के दावे करती आई हो पर चुनाव में हवा निकल गई पर फिर भी जोड़-तोड़ की सरकार तो बन ही गई। पर नतीजों की पैनी नज़र से की गई पड़ताड़ यह साबित करने के लिए पर्याप्त से कही अधिक है कि आत्ममुग्धता अंततः पतन के रास्ते की फिसलन का भी नाम है। इस बार के चुनाव ने यह साबित कर दिया कि सरकारें किसी पार्टी की क्यों न हों एक बार सत्ता मिलते ही वह आखों और दिमाग की रोशनी छीनती चलती है नतीजे में ठीक तरह दिखाई नहीं देता और और फैसले भी विवेकपूर्ण नहीं रह जाते।
इसे कुछ एक दो नजीर से ही देखने की कोशिश इसकी सचाई उधेड़कर रख देती है। जैसे कि 2014 और 2019 के चुनावों में लिए गए एनडीए की सरकार के फैसले दिखने को तो बड़े लोकहितैषी लगते रहेसरकार को यह लगा कि वह जनता की नब्ज पकड़ना जानती है पर क्या हुआ फिर जब कश्मीर से धारा 370 हटा दिया, राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा अयोध्या में की गई पर देखिए उसी कश्मीर की तीन में से किसी में भी भाजपा ने चुनाव नहीं लड़ा...मंदिर मस्जिद करने वाली पार्टी उसी अयोध्या में जनादेश अपने पक्ष में न कर सकी वह सीट ही हार गई। उत्तरभारत के बूते केन्द्र की सत्ता की कुंजी खोजने वालों को गहरी निराशा हाथ लगी है। नतीजे में जनता ने सरकार को उनके असल मुद्दों की ओर लौट आने को विवश किया है।
यही वजह है कि केन्द्र की सरकार जनता का नब्ज टटोलकर सत्ता में आते ही किसानों के हित में घोषणा करने लगती है। देश के किसानों के लिए आते ही 20 हजार करोड़ रुपये उनके बैंक खातों में डालना अपरिहार्य समझा गया। करो़ड़ों बेघरों को पीएम आवास योजना के लाभार्थी की तरह प्रचारित कर इसकी शुरूआत की थी।
दूसरी ओर जो सरकार अभी बनी है वह विपक्ष पर उनके सरकार में रहने पर भ्रष्टाचार करने और निकम्मी होने का आरोप लगाती रही है वही उल्टे नीट- जैसे महत्वपूर्ण परीक्षा में गड़बड़ी के गंभीर आरोप में उलझ गई है। जिस युवा वर्ग को नौकरी के लिए साधने की कोशिश करती हैं सरकारें अब उन्हें ही परीक्षा में गफलत कर वंचित करने का काम सरकार से उसी वर्ग का मोह भंग कर रहा है। मामला शीर्ष अदालत में पहुंचा तो उसने भी परीक्षा आयोजित करने वाले विभाग को नीट की गड़बड़ी सुधारने के लिए कदम उठाने के निर्देश दिये हैं। इतनाभर होना जैसे काफी नहीं था। 19 जून को नेट की परीक्षा भी लेने के बाद रद्द कर दी गई । लाखों विद्यार्थियों का भविष्य कर बार फिर एक झटके में अधर में टांग दिया गया। आवाम आपको देने भर के लिए नहीं है कि वोट देती जाए,मांगने के लिए उनके पास जवाब भी हैं जो शायद सरकार के पास हैं नहीं ।
केन्द्र सरकार अभी बनी ही है ठीक तरह से मंत्रिमंडल की बैठकें भी नहीं हो सकी हैं और शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान को सफाइयां देनी पड़ रही हैं। कुल मिलाकर सियासी गलियारों में तपिश कम हुई नहीं हैं झुलसाने वाले अध्याय खुलते जा रहे हैं। इधर छत्तीसगढ़ में ही वरिष्ठ और कद्दावर मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को रिकार्ड मतों से लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद भी कैबिनेट में नहीं लिया जाना भाजपा के भीतर ही रैंक एंड फाइल में असंतोष पैदा कर रहा है। मणिपुर को लेकर विराट मौन, बंगाल की सीटें कम होना, दक्षिण के लिए जरूरत से अधिक आग्रह और हताशा, महाराष्ट्र में मराठा अस्मिता से अल्पजीवी लाभ के लिए की गई सौदेबाजी आने वाले समय में वेताल की तरह सरकार के कंधों पर सवार होकर हिसाब मांगती रहेंगी।