• 28 Apr, 2025

हिन्दू धर्म को खतरा है संकीर्ण हिन्दुत्ववाद से

हिन्दू धर्म को खतरा है संकीर्ण हिन्दुत्ववाद से

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विजय बहादुर सिंह

हिन्दू धर्म अनेक विश्वासों, जातियों और धर्माचारों का ऐसा विलक्षण किन्तु खूबसूरत कोलाज है कि उसके ताने-बाने को समझना आसान नहीं हैं। उसमें मांसाहारी भी खूब हैं और शाकाहारी भी विपुल। उसका अधिकांश हिस्सा अपने मुर्दों को जलाता है तो कुछेक हिस्सा दफनाता या गाड़ता है। अपने को अन्य सारी जातियों से परम श्रेष्ठ मानने वाली ब्राह्मण जाति का एक बड़ा हिस्सा मांसाहार करता है तो दूसरा बड़ा हिस्सा शाकाहारी भी है। कश्मीरी मिथिला के मैथिल और बंगाली ब्राह्मण मांसाहारी हैं। राजपूतों में तो मांसाहार को लेकर कोई संदेह ही नहीं। दो-दो दिव्य क्षत्रिय अवतारों-राम और कृष्ण के बावजूद मेवाड़ से लेकर उत्तर  और उत्तर पूर्व के राजपूत काली, दुर्गा या शिव की उपासना में लीन देखे जा सकते हैं। मेवाड़ के सिसौदिया शिव के उपासक हैं।

हिन्दुओं की इन दो प्रमुख वर्चस्वशाली जातियों के बाद व्यापारी वैश्य जातियां राम और कृष्ण जैसे अवतारों को अपना आराध्य मान वैष्णवता का पालन करते हैं। शेष जातियां जिन्हें पारंपरिक पदावली में शूद्र अथवा सवर्णेत्तर, आधुनिक राजनीतिक पदावली में पिछड़ी जातियां जिनमें तरह-तरह के उद्योग धंधों-खेती, गौ पालन, बढ़ईगीरी, लुहारी, आदि इनका अपना खान-पान और रहन-सहन  कथित ऊंची जातियों के प्रभावानुसार चलता रहता है। ये भी राम-कृष्ण, शिव या काली-दुर्गा की उपासना करती हैं क्योंकि इनके अंचल की ऊंची जातियां भी करती हैं। इसीलिए ये भी अपनी मुक्ति के लिए सत्यनारायण व्रत कथा और भागवत कथा सुनतीं और बह्मभोज में विश्वास करती हैं। तथापि ऊंच- नीच छुआछूत के रोग से ये भी परस्पर ग्रस्त हैं।

शूद्रों के अतिरिक्त जो दलित वर्ण की जातियां आती हैं और जिनके पास शारीरिक श्रम के आलवा अन्य कोई पंूजी या संसाधन नहीं, उनकी दशा और मनोदशा की परवाह तो ऊपर के तीनों वर्ण शायद ही करते हों। ये वे मूक जातियां हैं जो ऊपर की जातियों का अत्याचार सदियों से मूक रहकर भुगतती आयी हैं। सामान्यतः तो इन जातियों को घरेलू पशुओं जैसी बराबरी भी उपलब्ध नहीं। भैंस, गाय और कुत्ते का स्पर्श तो वर्जित नहीं है, किन्तु हरिजन के स्पर्श से अपवित्र हो जाने का खतरा है। डॉ. अम्बेडकर ने सवर्णो के इन अत्याचारों का अनुभव कर अपना हिन्दू धर्म छोड़ बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया, सो भी हजारों दलितों के समूहों के साथ।

मध्यकालीन इतिहास में जायं तो सवर्ण वर्चस्वी हिन्दुत्व के इन्हीं अमानवीय अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए लाखों उत्पीडि़त जातियों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया। आज इसके लिए प्रमाण देने की जरूरत नहीं कि अपने इन्हीं अत्याचारों के चलते हिन्दू धर्म ने न जाने कितनी जातियों को इस्लाम और बौद्ध धर्मों की ओर धकेला। सवर्ण हिन्दू ने फिर भी अपनी-अपनी इन करतूतों पर पश्चाताप करना सीखा नहीं हैं। कहने को अंग्रेजों के आने के बाद उसने संस्कृत भाषा की जगह न केवल अंग्रेजी पढ़ ली, वरन् अपने को उसी अंगेजियत में भी पूरी तरह, सो भी पूरी तरह, सौ भी सगौरव ढाल लिया किन्तु अपना सवर्ण श्रेष्ठतावाद फिर भी नहीं बदला। यह भी कभी नहीं सोचा कि पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौं सैंतालीस के बाद जो जनतांत्रिक सत्ता आई है, उसमें ब्राह्मण और दलित ही नहीं, मुसलमान और इसाई भी एक साथ समानता से बैठने के अधिकारी हैं। अब यह सबका संवैधानिक हक है। तथापि सवर्णों ने अभी तक अपने मानस में परिवर्तन करना मुनासिब नहीं माना है। अभी वे मानते हैं कि देश के समस्त संसाधनों के हकदार केवल और केवल हम हैं और जो हमसे इतर हैं वे इस सबके हकदार जब पहले कभी नहीं थे तो अब कैसे इसके अधिकारी हो सकते हैं। गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, और मध्य प्रदेश में शादी-विवाह के अवसरों पर घोड़े पर बैठ ब्याह करने जाने वाले दूल्हों के साथ यह सवर्ण समाज क्या करता है, इसकी खबर हम पढ़ते ही रहते हैं।

सवर्ण हिन्दुओं का अपने ही दलित हिन्दू भाइयों के साथ यह तो खुले आम अत्याचार होता रहता है उसके लिए न तो कभी कोई विश्व हिन्दू परिषद का नेता आगे आता है, न ही बजरंग दल के नेता के लोग। न नवनिर्माण हिन्दू सेना के लोग। तब पूछना पड़ेगा कि क्या इन सबकी मंशा सचमुच समस्त हिन्दू भाइयों की सुरक्षा और उनके संवैधानिक हकों के लिए लड़ना है? अगर नहीं है तो फिर ये किस हिन्दुत्व की रक्षा के लिए अपने-अपने संगठन बनाकर तरह-तरह के हुड़दंगों को अंजाम देते रहते हैं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि ये सांस्कृतिक संगठन हैं या फिर राजनीतिक दल विशेष की ऐसी असंवैधानिक सेनाएं जो उसके हित में आतंक पैदा करने की भूमिका निभाते हैं? प्रश्न यह भी विविधतापूर्ण, विशाल और विराट हिन्दुत्व की ठेकेदारी इन्हें किसने या किसी संवैधानिक संस्था ने दी है? क्या किसी विशेष मठ या धर्म सम्प्रदाय ने इन्हें ऐसी कोई स्वीकृति दी है? अगर ये किसी राजनीतिक सत्ता दल की अपनी सेनाएं हैं जो उसकी मंशा के अनुरूप सक्रिय रहती हैं तो इन्हें क्यों नहीं, प्रतिबंधित किया जाना चाहिए?

सवाल यह भी है कि इसमें शामिल अधिकांश लोग अपने धर्म, परम्परा और संस्कृति में आधारों को ये कितना जानतें हैं? अगर नहीं जानते तो फिर इनकी जबरन ठेकेदारी क्यों? क्या ये संगठन कभी हिन्दुओं में व्याप्त दहेज-प्रथा, कुशिक्षा, प्रशासनिक हल्कों में व्याप्त भ्रष्टाचार, भूख, और गरीबी को लेकर अपनी सक्रियता प्रदर्शित करते हैं? अगर नहीं तो फिर ये किस हिन्दुत्व और कैसे हिन्दूत्व के प्रतिनिधि हैं? कोई समाज विज्ञानी आगे क्यों नहीं आकर इनकी गतिविधियों का अध्ययन करता और लोगों को बताता कि इनकी मंशा किस हिन्दुत्व को बचाने और सुधारने की है? क्या किसी सरकार ने इन्हें इसकी कोई ठेकेदारी दी हैं?

इस प्रकार के संगठनों, सेनाओं और दलों से आज भारत के इसाई और मुसलमान भी आतंकित और त्रस्त हो उठे हैं। उनका सहज जीवन-व्यापार भी भयकातर और चिन्ताग्रस्त हो उठा है। उनमें एक खास प्रकार का भय और परायापन-सा आने लगा है जो देश की एकता और सामाजिक सौमनस्य के लिए तो खतरा है ही, खुद उन हिन्दू भाइयों के लिए भी चिंता का कारण बनता जा रहा है जो आज तक सहज भाई चारे के साथ गंगा-जमुनी संस्कृति में विश्वास करते और उसी में जीते आए हैं। जो सामूहिकता और विविधता को न केवल हिन्दुत्व बल्कि हिन्दुस्तान के आधारभूत स्वभाव के रूप में मानते आए हैं। ऐसे तमाम हिन्दुओं को यह भय और चिंता सताने लगी है कि अगर परम्परागत रूप से चलते चले आ रहे इस सामूहिक जीवन-बोध को डिसटर्व किया गया तो इस देश का वह सामूहिक मन टूट-बिखर जाएगा जिसने अठारह सौ सत्तावन से लेकर उन्नीस सौ सैंतालीस तक तरह-तरह की लड़ाइयां लड़ीं, कुर्बानियां दीं और स्वाधीनता प्राप्त की।

आज यह स्वाधीनता खतरे में है, सामूहिकता खतरे में है, भाई चारा खतरे में है। कीमतें चुका कर पाई गई वह नागरिकता खतरे में है, जिसकी चिन्ता करने की जरूरत सबसे बड़ी राष्ट्रीयता है।
 

( यह लेखक के अपने निजी विचार हैं )