• 28 Apr, 2025

समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं, बच्चा भी गोद नहीं ले सकते...

समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं, बच्चा भी गोद नहीं ले सकते...

• एलजीबीटीक्यू समुदाय को झटका – शीर्ष अदालत का एकमत से फैसला • कानून बनाना न्यायपालिका नहीं, विधायिका का काम है

नई दिल्ली। समलैंगिक विवाहों को सुप्रीम कोर्ट ने विशेष विवाह अधिनियम के तहत कानूनी मान्यता देने से इंकार कर दिया है। शीर्ष अदालत की संविधान पीठ ने इस पर चार अलग- अलग फैसले लिखे लेकिन सभी ने एकमत फैसले में कहा ऐसे गठजोड़ के लिए कानून बनाना और मान्यता देना सिर्फ संसद या विधानसभाओं का अधिकार है। 
   साथ ही शीर्ष कोर्ट ने तीन दो  के बहुमत के फैसले में कहा ऐसे जोड़ों को बच्चा गोद लेने का भी अधिकार नहीं है हालांकि अदालत ने हिंसा जबरदस्ती या हस्तक्षेप के किसी भी खतरे के बिना संबंध बनाने के उनके अधिकार को बरकरार रखा है। साथ ही ऐसे जोड़ों की चिंताओं की परख करने के लिए केन्द्र सरकार से कमेटी बनाने के लिए कहा  है। 
    चीफ जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस रवीन्द्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा की पांच सदस्यीय संविधान पीठ  इस पर एक मत थी कि कानून समान लिंग वाले जोड़ों के विवाह के अधिकार को मान्यता नहीं देता। पीठ ने एकमत से यह भी कहा कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान करने के लिए विधायिका को निर्देश देना भी अदातलों के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। 
  संविधान पीठ ने विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह के अधिकार को मान्यता देने की मांग करने वाली 21 याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया है। 
 सीजेआई जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस कौल, जस्टिस भट और जस्टिस नरसिम्हा के अलग -अलग लिखे चार फैसलों में समलैंगिक जोड़ो को विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए) के दायरे में लाने के लिए इसके प्रावधान को रद्द करने या उसमें बदलाव करने से इंकार कर दिया गया। इनमें से  सीजेआई जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस कौल समलैंगिक जोड़ों को बच्चा गोद लिए जाने के पक्ष में थे पर शेष तीनों जजों ने इसके उलट राय दी थी। मार्च और अप्रैल में दोनों पक्षों की ओर से चली गहन बहस के बाद पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 11 मई को 21 याचिकाओं के एक बैच पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था। याचिकाओं में न्यायपालिका से समलैंगिक शादी को मान्यता देने के लिए विशेष विवाह अधिनियम में बदलाव करने और उन्हें बच्चे गोद लेने के अधिकार की मांग की गई थी। 

विशेष विवाह अधिनियम खारिज किया तो देश आजादी से पहले के दौर में पहुंच जाएगा...

  • समलैंगिक विवाह – सुप्रीम कोर्ट का फैसला
    नई दिल्ली। समलैंगिक विवाह को कानूनी सहमति दिलवाने के लिए याचीगण विशेश विवाह अधिनियम को सबसे बड़ा रोड़ा मान रहे थे और इसे रद्द करवाना चाहते थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इनकी इस हठ को नकारते हुए कहा कि अगर ऐसा किया गया तो देश आजादी के पहले के समय में पहुंच जाएगा, जब यह कानून नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए ऐसी कई अहम बातें कही हैं जिनका आने वाले समय में व्यापक असर होगा। - यहां पढ़िये इस मामले के विभिन्न पहलू तथ्य और फैसले के कुछ रोचक निष्कर्ष....
     
  • विवाद यहां से उठा था...
    याचीगणों ने हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, विशेष विवाह अधिनियम 1954, विदेशी विवाह अधिनियम 1969 सहित कई कानूनों को चुनौती दी थी। कहा कि इनमें विवाह विपरीत लिंगी  ( पुरुष और महिला) के बीच ही माना गया है। लमलैंगिक विवाह को कानूनन विवाह की परिभाषा में नहीं रखा गया। ऐसे विवाह समलैंगिकों के प्रति भेदभावपूर्ण हैं। इसी से विशेश विवाह अधिनियम रद्द करने की मांग की गई थी।  कहना था कि इनकी वजह से  समलैंगिकों को टैक्स राहत, बच्चे गोद लेने के कानून, विरासत से जुड़े कानूनों आदि में विवाह के परिणामस्वरूप मिलने वाले फायदों से महरूम होना पड़ रहा है जबकि यही सब लाभ विपरीत लिंगी विवाह करने वालों को स्वतः ही मिल जाते हैं। 
     
  • केन्द्र की समिति अधिकारों पर विचार कर रही-
      कोर्ट ने यह भी कहा कि केन्द्र सरकार समिति बनाकर समलैंगिक संबंधों और विवाह से जुड़े अधिकारों पर काम कर रही है। वह समलैंगिक जोडों के लिए परिवार राशन कार्ड बनाने, संयुक्त बैंक खातों में एक दूसरे को नामांकित करने, पेंशन और ग्रेच्युटी से जुड़े अधिकार पाने आदि मामलों पर भी विचार कर रही है। सॉलिसिटर जनरल ने बताया कि केन्द्र सरकार मामले से जुड़ी संवेदनशीलता को समझ रही है और समलैंगिकता के हकों को सुरक्षित करने के लिए काम कर रही है।

    और अदालत ने कहा......

    विवाह मूल अधिकार नहीं- सुप्रीम कोर्ट के पीठ के पांचों जजों ने एकमत से कहा कि विवाह एक बुनियादी अधिकार नहीं है। विशेष विवाह अधिनियम में इसे परिभाषित करती धारा 4 को असंविधानिक नहीं माना जा सकता। यही धारा पुरुष और महिला के बीच विवाह को कानूनी दर्जी देती है। 
    हम कानून नहीं बनाते इसके लिए व्यवस्थापिका है - 
    याचीगण की मांग पर पीठ ने यह भी साफ कर दिया कि अगर अदालत विशेष विवाह अधिनियम में नए शब्द डालने की कोशिश करती है तो वह कानून बनाने वाली व्यवस्थापिका की भूमिका में आ जाएगी अतः उसके लिए ऐसा करना संभव नहीं है। कानून बनाना संसद का काम है। वही निर्णय कर सकती है कि विशेष विवाह अधिनियम में किसी तरह के संशोधन की  जरूरत है भी या नहीं। याचीगण जो अधिकार चाहते हैं उसे एक न्यायिक आदेश से पूरा नहीं किया जा सकता।