• 28 Apr, 2025

दोनों तरफ सेनाएं सज रहीं हैं, बिगुल बजने का इंतजार है......

दोनों तरफ  सेनाएं सज रहीं हैं, बिगुल बजने का इंतजार है......

विधानसभा चुनाव.

चुनाव के लिए विधवत शंखनाद होना अभी शेष है पर तमाम राजनीतिक पार्टियां इससे काफी पहले से देशभर में अपनी -अपनी बिसात बिछाना शुरू कर चुकी हैं।  केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भारतीय जनता पार्टी की जिन प्रदेशों में सरकारें हैं वहां तो महीनेभर पहले से पार्टी प्रत्याशियों की प्रारम्भिक छोटी-छोटी सूचियां जारी भी की जा चुकीं हैं। छत्तीसगढ़ में भी पहली सूची घोषित की गई है। यद्यपि भाजपा सूची घोषित करने में आगे रही है पर फिर भी जिन प्रदेशों में दो या कि तीन बार उनकी सरकार रह चुकी वहां-वहां उसके विधायकों के प्रति स्वाभाविक एंटीइनकंबेंसी जैसी स्थितियां भी बनी हैं। जनता की उम्मीदें उनके अनुरूप पूरी नहीं होने पर आक्रोश का होना लाजिमी है और ऐसे में सियासी रणनीतिकारों को बीच का रास्ता निकलना जरूरी हो जाता है।   
 
          मध्यप्रदेश में जहां लगातार चौथी बार भाजपा की सरकार किसी तरह जोड़-तोड़ से बनाई गई थी वहां प्रत्याशियों के चयन में पार्टी में मंथन चल रहा है। तीन बार सत्ता में रहते जो आक्रोश  भाजपा को झेलनी पड़ी थी उससे ही कांग्रेस की (कमलनाथ) सरकार बन पाई थी,  वहां कुछ ही समय बाद ( भाजपा )  शिवराज सिंह चौहान की सरकार अविश्वास प्रस्ताव के बाद जोड़तोड़ से ही बनी थी। अब मप्र में भाजपा सांसदों को विधानसभा के लिए टिकट देने की सोच रही है। अब जबरिया जोड़-तोड़ से बनी सरकार के बाद वहां पार्टी की  हालत ये है कि विजयवर्गीय जैसे वरिष्ठ विधायक और कई -कई बार के मंत्री तक इतने पस्त-हिम्मत हैं कि समर्थकों के बीच घिरे एक वीडियो में कहते दीख रहे हैं कि “पार्टी ने तो मुझे टिकिट दे दी है पर भीतर से मैं खुश नहीं हूं ”। अब जीत की पूरी संभावना हो तो कोई खुश क्यों नही होगा भला, पर वे कह रहे हैं - मैं भीतर से खुश नहीं हूं, तो जाहिर है कि अनुभवी नेता जी को अपनी हैसियत का अनुमान हो गया है।  यानी इस बार के नतीजे से वे फिर कहीं के न रहेंगे तो समय रहते पार्टी को संदेश दे रहे हैं कि उनके बारे में कुछ और सोचा जाय ..।  दाल का एक दाना बता रहा है कि दाल गल नहीं रही है।
 
      इधर कांग्रेस का तो हाल सभी जानते हैं एक-एक सीट पर दर्जनों दावेदार होते हैं। खेमों में नेता अपने-अपने करीबियों, समर्थकों के लिए जोर आजमाइश करते हैं ।  कई-कई दौर की बैठकों का कोई नतीजा नहीं निकलता।  आखिरी वक़्त तक बी-फार्म के लिये दर्जनों आँखें टकटकी लगाये रहतीं हैं। और फिर फैसला होने पर खेमों में असंतोष की लहर भी होती है।  इसी से बचने आचार संहिता तक घोषणा रोके रखना एक तरह से स्थायी रिवाज सा बन गया है। जाहिर है आपसी लड़ाइयों, अंतर्कलह का लाभ फिर प्रतिस्पर्धी उठाते ही हैं। फिर हॉर्स ट्रेडिंग होती है, पार्टियां तोड़ी जातीं हैं।  इधर इन दिनों एक और रवायत बनी है कि ताबड़तोड़ केन्द्रीय एजेंसियों ईडी और आईटी के छापे डाले जाते रहे, मोटी रकम और सम्पतियां अटैच की जाती रही,  भ्रष्टाचार के आरोप में अफसर - नेता जेल दाखिल किये जाते रहे। सौदेबाजियां होती रहीं। पाला बदलने के लिए दबाव बनाए गए, खेमा बदलते ही सारे आरोप से मुक्त भी हो गये। इसका बात इतना शोर मचा फिर भी सत्ता के गुमान में बैठे हुओं को जैसे कोई फर्क ही नहीं हो रहा था, अंततः एक मुख्यमंत्री ने सुप्रीमकोर्ट से प्रताड़ना की शिकायत कर दी। शीर्ष कोर्ट को हिदायत देनी पड़ी कि यदि ऐसा है तो फौरन इसे रोका जाये।  
   सब जानते हैं सारी लड़ाइयां अंततः बाजुओं के बल और छल के दम पर जीती जाती हैं। और संभावित युद्ध के पहले इसकी तैयारियां कर ही ली जाती हैं। दोनों ओर सेनाएं सज रहीं हैं , मोहरे बिठाये जा रहे हैं, संघातक वार के लिए कमजोर ठिकाने तलाशे जा रहे हैं... बिगुल बजने का इंतजार है ....।