• 28 Apr, 2025

यह अविश्वास प्रस्ताव 2018 से अलग क्यों है?

यह अविश्वास प्रस्ताव 2018 से अलग क्यों है?

सुदीप ठाकुर

प्रधानमंत्री मोदी की एक कथित भविष्यवाणी दो दिनों से अखबारों और खबरिया चैनलों में चर्चा में है। यह 2019 के लोकसभा चुनाव से थोड़ा पहले संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा पर प्रधानमंत्री के जवाब की वीडियो क्लिप है, जिसमें वह यह कहते हुए नजर आ रहे हैं,  "मैं आपको(विपक्ष) इतनी शुभकामनाएं देता हूं कि आप इतनी तैयारी करें कि आपको 2023 में फिर से अविश्वास प्रस्ताव लाने का अवसर मिले।"

कथित मुख्यधारा का मीडिया प्रधानमंत्री की इस भविष्यवाणी की आड़ में  विपक्ष के आगामी अविश्वास प्रस्ताव में सरकार की सुनिश्चित जीत को 2024 के प्रस्थान बिन्दु की तरह देख रहा है। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि 2019 के चुनाव से करीब साल भर पहले मोदी सरकार ने 2018 में भी अविश्वास प्रस्ताव का सफलतापूर्वक सामना किया था। मगर इन चार बरसों में राजधानी दिल्ली से होकर गुजरने वाली यमुना में काफी पानी बह चुका है! इन चार वर्षों में बहुत से जख्म मिले हैं, उनमें मणिपुर के घटनाक्रम ने सबसे ताजा और गहरा जख्म दिया है। इसने भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को आहत किया है।

दरअसल लोकतंत्र की एक विसंगति यह भी है कि वह नैतिकता पर नहीं, बल्कि संख्या बल पर चलता  है। प्रधानमंत्री और सदन के उनके प्रबंधक यह बखूबी जानते हैं। इसके बावजूद अविश्वास प्रस्ताव संसदीय लोकतंत्र में वह हथियार है, जिसके जरिये विपक्ष सरकार को बेनकाब करने की कोशिश करता है। यह संसदीय प्रणाली का एक अनिवार्य हिस्सा है, जिससे सरकार को जवाबदेह बनाया जा सके या नहीं, लेकिन इससे विपक्ष को संसद के भीतर अपनी बात कहने का मौका मिलता है।  यह विपक्ष का अधिकार है। कहने की जरूरत नहीं कि यह दुधारी तलवार है, क्योंकि इसके जरिये सरकार को अपनी ताकत दिखाने का भी मौका मिलता है। और वैसे भी लोकसभा का मौजूदा आंकड़ा स्पष्ट तौर पर सरकार के पक्ष में है। 
 
मगर ऐसे दौर में ,जब दोनों सदनों में विपक्ष की आवाज को लगातार कमजोर किया जा रहा हो,  महत्वपूर्ण विधेयकों को संसदीय परंपराओं और नियमों की अनदेखी कर आनन-फानन में पारित कर दिया जा रहा हो, तब  विपक्ष के पास अपनी बात कहने का यही एक तरीका बचता है और I.N.D.I.A  ने यही किया है।

यह सवाल बेमानी है कि करीब तीन माह से जल रहे मणिपुर में महिलाओं के साथ भीड़ द्वारा की गई हिंसा और यौन उत्पीड़न का वीडियो संसद सत्र से ठीक पहले कैसे सामने आया। बल्कि पूछा तो यह जाना चाहिए कि चार मई की घटना के बाद राज्य और केंद्र की डबल इंजिन सरकारों ने जातीय हिंसा में जल रहे मणिपुर में शांति और सद्भाव कायम करने के लिए किया क्या?

मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को इतिहास में ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में दर्ज किया जाएगा, जिसने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में कहें तो, 'राजधर्म' का पालन नहीं किया। मणिपुर की हिंसा के बाद गुजरात के 2002 के दंगों के समय वाजपेयी की तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दी गई नसीहत के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। वाजपेयी ने तब कहा था, "मेरा एक ही संदेश है कि वो राजधर्म का पालन करें... यह शब्द काफी सार्थक है, मैं उसी का पालन कर रहा हूं, उसी के पालन का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिए शासक के लिए प्रजा प्रजा में भेद नहीं हो सकता न जन्म के आधार पर न जाति के आधार पर न संप्रदाय के आधार पर। मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई यही कर रहे हैं..."  अब वाजपेयी यह देखने के लिए उपस्थित नहीं हैं कि उनकी ही पार्टी के एक और मुख्यमंत्री को उन्हें ऐसी ही नसीहत देने की जरूरत पड़ती। इस मुख्यमंत्री की सरकार जाति और संप्रदाय के आधार पर प्रजा प्रजा में भेद कर रही है। बीरेन सिंह 'राजधर्म' का पालन करने में पूरी तरह नाकाम साबित हुए हैं। इसके बावजूद वह सत्ता में बने हुए हैं।

बेशक, किसी मुख्यमंत्री द्वारा अपने राज्य में अपने सभी  नागरिकों के सांविधानिक अधिकारों की रक्षा करने से संबंधित अपनी जवाबदेहियों को पूरा न करने का यह पहला मामला नहीं है। लेकिन मणिपुर में जो कुछ हुआ और हो रहा है, वह अभूतपूर्व है। यह मुख्यमंत्री के रूप में ली गई शपथ का भी घनघोर उल्लंघन है। आप कह सकते हैं कि ऐसी शपथ को कौन गंभीरता से लेता है?  पर सवाल है कि क्या सांविधानिक जवाबदेही से जुड़ी इस शपथ पर बात नहीं होनी चाहिए?

संविधान की तीसरी अनुसूची मंत्रियों के शपथ से संबंधित है, जिनमें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। दो तरह की शपथ होती हैं, एक पद की और दूसरी गोपनीयता की। इसमें केंद्र और राज्य के मंत्रियों की शपथ का प्रारूप दिया गया हैः "मैं अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं/ सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं, कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं संघ के मंत्री के रूप मे अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा। "

राज्य के मंत्री के रूप में ली जाने वाली शपथ में संघ की जगह राज्य पढ़ा जाता है। 
कहने की जरूरत नहीं कि 'सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान...' से आशय लिंग, जाति, वर्ग और संप्रदाय के आधार पर पक्षपात के बिना से है। मणिपुर में हम इस शपथ का उल्लंघन होते देख रहे हैं। हैरानी इस बात की है कि प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के भीतर नहीं, बल्कि उसके बाहर कुछ पंक्तियों में मणिपुर की हिंसा का जिक्र करते हुए उसमें छत्तीसगढ़ और राजस्थान को भी जोड़ लिया।

निस्संदेह मणिपुर ही नहीं, बल्कि किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए। हिंसा की 'बाइनरी' मंशा पर सवाल खड़े करती है। यह वाकई अनूठा मामला है जब प्रधानमंत्री के संसद में बयान के लिए विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा है।सुदीप ठाकुर

(स्वतंत्र पत्रकार और हाल ही में आई किताब, "दस सालः जिनसे देश की सियासत बदल गई", के लेखक)