• 28 Apr, 2025

हम तुम्हें पैदा करना ही बंद कर दें तो ?

हम तुम्हें पैदा करना ही बंद कर दें तो ?

■ असुरक्षा, भय और न्याय न मिलने की हताशा से उपजी है यह सोच....

कोलकाता के कर मेडिकल  कॉलेज में एक डॉक्टर की  दुष्कर्म  के बाद  की  गई  बर्बर  हत्या देशभर के विमर्श और गहरी चिंता के केंद्र  में है।  व्यवस्था  की  नाकामियों  को लेकर आक्रोश  है और सरकार की  निंदनीय उदासीनता और  केंद्र सरकार के घटक दलों की लानत भेजने लायक निर्लज्ज चुप्पी ने तो देश  की  शीर्षतम अदालत तक  को स्वतः संज्ञान लेकर इस बात  के लिये विवश कर दिया कि  सरकार से  कहे कि  हो क्या रहा  है?

इधर के कुछ बरसों  में देश मे  सियासत के लगातार गिरते स्तर और एक  अजीब किस्म की आत्मकेंद्रित होती सोच से  निरंतर संकुचित होते जाते समाज ने आम आदमी  को असाधारण रूप से  भयाक्रांत  कर  दिया है। इतना कि  जिनकी जान बचाने की शपथ लेकर एक  महिला डॉक्टर रातभर अस्पताल में  ड्यूटी पर तैनात रहती है वो  आम आदमी तक (कुछ मुट्ठीभर  अपवाद  को  छोड़कर)  इस कदर तटस्थ है कि  देशभर  से हताशा से  भरे  और  उदासीनता से डरे हुए डाक्टरों का  एक  वर्ग  लगातार  सोशल मीडिया पर  रील  बना कर  लोगों  से  अपील  करने पर  विवश  है कि- क्या आपका इलाज करने वाली डॉक्टर के  साथ हुई दरिंदगी और फिर उसकी  बर्बर हत्या आपके मुखर  विरोध करने के  लायक नहीं? क्या   डॉक्टर आपके  समाज और  घर  से  नहीं हैं?  क्या इतनी उदासीनता और  मौन  के  बाद  भी आप उम्मीद करते हैं  कि पीड़ित डॉक्टर आपको सेवाएं देते रहें, तो क्या यह कुछ ज्यादा ही उम्मीद नहीं है?  इस पूरे मामले  में  सरकार और  व्यवस्था की  संदेहास्पद  निष्क्रियता दोषियों  को खुली छूट एक तरह से शर्मनाक अभयदान सरीखा नहीं है?  इतनाभर जैसे काफी न हो  कि मौके पर से साक्ष्य हटाने तक  के  बंदोबस्त करते अपराधी  आखिर इतनी जुर्रत और  हेठी किस वरदहस्त के चलते कर  पा रहे हैं?

ये तो गनीमत है कि संसदीय लोकतंत्र में ऐसी व्यवस्था है कि सरकार की उदासीनता,  कार्यपालिका की आपराधिक अनदेखी और चुप्पी पर  न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सरकार और कार्यपालिका को  उनके काम  याद दिला सके,  उन्हें  निर्देशित  कर सके कि कुछ तो करे, पूछ  सके कि वो कुछ करती क्यों नहीं? य़ह  न्यायपालिका का हस्तक्षेप, पीड़ितों की  टूटती  उम्मीद को   ध्वस्त होने से   बचाने  की आखिरी  कोशिश,  सरकारों और व्यवस्था की  नाकामियों का प्रमाण पत्र  सरीखा  भी है। लगभग  मनमानी  करती  सी  दिखती  सियासी पार्टियां न्यायपालिका के  इस  हस्तक्षेप को मानते हुई यदि दिखतीं  भी हैं  तो  ये भी दम  तोड़ती  उम्मीद  के  भरम  की तरह  ही  है क्योंकि अस्ल में तो कुछ होता हुआ दिखता नहीं।  

  और ऐसे में इससे  बुरा  और  क्या  होगा कि  बुरी तरह से हताश, पीड़ित पक्ष  को  ही अपने लिए न्याय की  गुहार  लगाने की अपील   भी  उनसे करनी पड़ रही  है जिनके लिए खराब  हालात में वे अपनी सेवाएं देने का  संकल्प लिए होते हैं। उसी  कॉलेज की एक अन्य  महिला डॉक्टर का  आक्रोश इस जघन्य अपराध की गम्भीरता को  चीख - चीख कर तब  जाहिर  करता है  जब  वह  कहतीं  हैं अब  तो लगता  है  जैसे  रात की ड्यूटी करती हम  महिला  डॉक्टर की दशा  वैसी  ही है जैसे मेमने  की  निगहबानी  किसी खूंखार भेड़िये को दे दी गई हो।

उन्हें कहना पड़ा कि कहते तो  हैं  बेटी  पढ़ाओ, बेटी  बढ़ाओ - डॉक्टर तो  बनाया न और कितना पढ़ाएं  बताइए?  फीमेल       फिटीसाइड ( कन्या भ्रूण हत्या) रोकते हैं जो  वाज़िब है पर लगता है  अब हमें इन दरिंदों को ही  पैदा करना बंद करना पड़ेगा। हम ही तो पैदा करते इन्हें अब हम ही बंद भी कर देंगे।  कितनी त्रासद स्थिति  में एक महिला को यह कहना पड़ा होगा? जरा कल्पना कर  देखिये।

अब सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेकर कहा कि एक और  घटना का इंतजार नहीं  कर सकते।  साथ  ही कोर्ट ने  सरकार से  अनेक सवाल पूछे, कहा कि त्वरित कार्रवाई में क्या दिक्कत थी वैसे?  जाहिर है  जवाब  मिल जाने पर भी  जान तो वापस नहीं  आ जायेगी पर न्याय मिल जाने  से अपराधियों को भी संदेश जाएगा कि वे कुछ भी करके नहीं बच सकते हैं, किसी तरह का रसूख  उन्हें नहीं बचा  सकेगा। बर्बरता की सोच ही पैदा न होने पाए कुछ ऐसी सरकारों और प्रशासन की  छवि बने कि अपराधियों की हिम्मत ही न हो ।

उम्मीद करते हैं कि  सरकार न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बाद ही सही पर न्याय जरूर करेगी।  अपराधियों को बचाए रखने के लिए सरकार के  सहयोगी दलों की आपराधिक चुप्पी की भरपूर मजम्मत होनी  चाहिए। उन्हें भी कटघरे में खड़ा  किया जाना  चाहिए।