क्लाइमेट चेंज सबसे बड़ी चुनौती - सीएम साय
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कोशिश हो तो लौट सकती है मैनपाट की कुदरती खूबसूरती
■ समीर दीवान
मैनपाट (सरगुजा)।गर्मी की छुट्टियों में इस बार मैनपाट यात्रा का मन बना तो सपरिवार छुट्टियां मनाने 5 जून की सुबह रायपुर से 7 बजे मैनपाट के लिये निकल पड़े। यह एक संयोग ही है कि पूरी दुनिया आज के दिन पर्यावरण दिवस मना रही है और सूर्यास्त होते- होते हम अम्बिकापुर से लगभग पचास किमी दूर पहाड़ पर बसे सरगुजा जिले के कस्बे मैनपाट के लिये जा रही जंगल से आच्छादित सर्पिल सैकड़ों पर रोमांचक सफर पर थे।
वैसे तो हम प्लेजर ट्रिप पर ही यहाँ आये हैं और अब जब अपने ठिकाने पर पहुंचे हैं तो बड़े उत्साहित और रोमांचित भी हैं । घना अंधेरा छा रहा है और रिसार्ट के बाहर खासी हरियाली है, उसके साथ है शहरों में लगभग अनुपलब्ध रहने वाला गहन सन्नाटा। अच्छी गहरी सांस लेने पर यहां की आबो-हवा की इन गर्मी के दिनों में भी कुछ खबर मिल रही थी। गूगल ने दिन का अनुमानित तापमान 31 डिग्री अधिकतम बताया था तो रात होने पर 25 के करीब हो रहा था जो ऐसी कमरे जितना सुखद था। रात के भोजन और विश्राम के बाद की सुबह भी बहुत सुंदर और सुखद थी। चारो ओर पेड़ और वनस्पतियों ने रिसॉर्ट को सम्मोहक सा बना दिया था।
सुबह के नाश्ते के बाद हमारा पहला पड़ाव था मैनपाट के करीब के गांव कुनेरी का खूबसूरत लीची फॉर्म । यहां इसके मालिक सूबेदार मेजर लाकपा से मिलना भी कम रोमांचक नही था जिन्होंने रिटायरमेंट के बाद 2017 में कुल 8 एकड़ के खेतों में कोई 27 किस्मो के फलदार पेड़ लगाए हैं । जिनमे से अनेक तो विदेशी किस्में हैं और उनके कमाल के इंतजाम और देखभाल से इस समय भी फलों से लदे है। बहरहाल बातचीत में उन्होंने बताया कि उनका जन्म तिब्बती शरणार्थी परिवार में मैनपाट में ही साठ के दशक की शरुआत में हुआ था। 1959 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद 1962 - 63 में शरणार्थी तिब्बत से भारत आये तो उनमें से 900 लोगो को मैनपाट में बसाया गया जिसकी आबो हवा तिब्बत के आबोहवा से मिलती जुलती सी थी। सूबेदार लाकपा बताते हैं कि जब वे छोटे बच्चे थे तो कुनेरी गांव जहां हम अभी बैठे है यहां बहुत ही घना जंगल हुआ करता था। झोपड़ियों से निकलते ही अक्सर बाघ, भालू जैसे जानवर दिख जाते थे। खेती के लिए हमारे पूर्वजों ने कुछ जंगल काटे भी पर फिर भी पर्यवारण में जरूरी संतुलन बना रहा। अब आबादी के दबाव में पेड़ काटे हैं तो पहले जैसी स्थिति नही है।
एक अन्य स्थानीय बाशिंदे ने बताया कि जंगल विभाग के आंकड़े भी मैनपाट के जंगलों के सपाट होने की कहानी कहते हैं ये और बात है कि कागजों में हर साल जाने कैसे बारिश के आते आते लाखों की संख्या में पेड़ रोप दिये जाते हैं पर जमीन पर धूल उड़ रही होती है। हमने तीन दिन रात मैनपाट में ठहर कर देखा सचमुच सुंदर तो है पर जाहिर है ये 60 साल पहले अपने पूरे हरियर वैभव के साथ बहुत खूबसूरत रहा होगा। लगता तो है कि जंगल पर दबाव कम हो , पेड़ों का कटाव रुके तो ऐसे में पर्यावरण दिवस पर पेड़ रोपने की सामूहिक जिमेदारी और सार्थक ज़मीनी प्रयास से इसकी खोई हुई खूबसूरती वापस हासिल की जा सकती है।
विश्व पर्यावरण दिवस क्यों और कब से मनाते हैं ? |
विश्व पर्यावरण दिवस ( World Environment Day; WED) पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में 5 जून को मनाया जाता है। वर्ष 1972 में पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु इस दिवस को मनाने की घोषणा की गई थी। |
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■ हमारे साझा सरोकार "निरंतर पहल" एक गम्भीर विमर्श की राष्ट्रीय मासिक पत्रिका है जो युवा चेतना और लोकजागरण के लिए प्रतिबद्ध है। शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती और रोजगार इसके चार प्रमुख विषय हैं। इसके अलावा राजनीति, आर्थिकी, कला साहित्य और खेल - मनोरंजन इस पत्रिका अतिरिक्त आकर्षण हैं। पर्यावरण जैसा नाजुक और वैश्विक सरोकार इसकी प्रमुख प्रथमिकताओं में शामिल है। सुदीर्ध अनुभव वाले संपादकीय सहयोगियों के संपादन में पत्रिका बेहतर प्रतिसाद के साथ उत्तरोत्तर प्रगति के सोपान तय कर रही है। छह महीने की इस शिशु पत्रिका का अत्यंत सुरुचिपूर्ण वेब पोर्टल: "निरंतर पहल डॉट इन "सुधी पाठको को सौपते हुए अत्यंत खुशी हो रही है। संपादक समीर दीवान
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