• 28 Apr, 2025

सब जगह चुनाव के करीब आते-आते हादसों-विवादों की आमद बढ़ जाती है

सब जगह चुनाव के करीब आते-आते हादसों-विवादों की आमद बढ़ जाती है

समीर दीवान चुनाव के दिन जैसे -जैसे करीब आने लगते हैं हादसों – विवादों की आमद बढ़ जाती है। कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से सरकार की नीतियों या जंगल में नक्सलियों की जगह पर सुरक्षा बलों के बढ़ते नियंत्रण से लगभग सुप्त से दिख रहे नक्सली एकदम से सक्रिय होकर अब एक के बाद दूसरी बड़ी घटनाओं को अंजाम देकर ये जता देना चाहते हैं कि वे अभी भी अपनी जगह पर अपनी पूरी धमक के साथ उपस्थित हैं

पर सचाई ये है कि सचमुच ही उनकी कमान कमजोर हो गई है।  वे अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की चिंता और कुंठा में हैं। सूत्र बताते हैं और  अखबारों में जो इन नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की अंदरूनी खबरें आती रहीं है उनसे जाहिर है कि अव्वल तो इनका कोई छतीसगढ़ी नेतृत्व नहीं  है,  न ही रहा  है कभी । बल्कि अब तक जितने उनके नेता थे सब आंध्र और तेलंगाना के ही रहे। और इनकी पूरी पीढ़ी अब बुजुर्ग हो गई है।  कह सकते हैं इनकी आखिरी खन्दक की लड़ाई ही बाकी है। ऐसे में चुनाव के ठीक पहले लैंड माइन विस्फोट कर बड़ी सँख्या में  हत्याएं करना उनकी रणनीति में अपनी ओर ध्यान खींचने के सिवा कुछ और नहीं है।  अभी भी बड़े हमले में शहीद हुए लोग वे लोग थे जो क़भी खुद नक्सली थे और कभी  मोहभंग के बाद मुख्यधारा में लौटने के बाद (डीआरजी)  डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड में शामिल हो गये थे। यानी इस हादसे में और इन जैसे पहले के तमाम हादसों और हमलों में केवल आदिवासी ही आपस में मरते और मारते रहे हैं।  आंध्र से आये उनके नेता बुढ़ाते तक जीवित हैं। वे अब हताश भी हैं। हजारों निर्दोष आदिवासियों की हत्या कर जाने के बाद वे क्या हासिल कर लेना चाहते हैं? जो उन्हें अब तक मिला भी नहीं, चाहे फिर सरकारें किसी भी रहीं हों।  अब फिर सरकारें “नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा”  जैसे पिटे हुए जुमले बोलकर चुप हो जाएंगी।पर इस मुद्दे पर कांग्रेस की सरकार ने  कहा था कि नक्सलियों से बातचीत के जरिये कोई समाधान निकालने  पर सहमति बनाने के प्रयास करेगी।अब तो सरकार का कार्यकाल खत्म होने  को है पर सचमुच एक भी गंभीर कोशिश  बातचीत की हुई हो,  याद नहीं पड़ता । ऐसे में कभी- कभी तो संदेह होता है सचमुच ही कोई इस  मर्ज का इलाज चाहता भी  है कि नहीं?
     इधर दिल्ली में बाहुबली भाजपा सांसद कुश्ती महासंघ के प्रमुख बृजभूषण शरण सिंह पर  महिला पहलवानों ने यौनशोषण जैसे गम्भीर आरोप लगाते हुए उन्हें पद से हटाने की मांग की पर उनकी सुनी ही नहीं गई। यहां तक कि एफआईआर लिखवाने गए पहलवान भी निराश वापस लौट गये, ज्यादातर तो इनमें महिलाएं ही थीं। आखिर में सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई ने संज्ञान लिया और पुलिस को एफआईआर लिखकर कार्रवाई की रिपोर्ट देने की बात कही है? पर शर्मनाक ही था कि उसके पहले तक केंद्र की सरकार मौन साधे रही। 
     और जैसे इतना ही काफी नहीं था, अब कद्दावर आदिवासी नेता  नंदकुमार साय जो कई मर्तबा के सांसद और एक बार अखिल भारतीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रह चुके हैं उन्होंने अपने इस्तीफे में लिखा है कि भाजपा के भीतर ही कुछ लोग उनकी प्रतिष्ठा धूमिल करने में लगे हुए हैं। लगातार उनकी उपेक्षा हो रही है जबकि मैंने पार्टी से मुझे मिले सभी दायित्वों का निष्ठा से पालन किया है। और फिर वे कांग्रेस में चले गए। 
  उधर सत्यपाल मलिक जो जम्मू कश्मीर के राज्यपाल रहे हैं  पत्रकार करण थापर को दिये एक सनसनीखेज साक्षात्कार में कहा कि पुलवामा में जवानों की शहादत पाकिस्तानी हमला नहीं हमारी अपनी बड़ी चूक का नतीजा है जो चूक भी नहीं थी, बल्कि नियोजित ही थी।  जिम्मेदारी तो उन्हीं की थी अब पुरानी बातें इस तरह निकालने का मतलब साफ है... मंशा ठीक थी तब क्यों चुप रहे जब सब हो रहा था ? तो ये कुछ गिनती के हमले, हादसे और विवाद हैं जिनकी टाइमिंग और आमद के पैटर्न पर गौर करें तो चुनाव की पदचाप सुनी जा सकती है।