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■ बस, बहुत हो चुका , समाज की ऐसी घटनाओं को भूलने की आदत खराब ■ कोलकाता की घटना महिलाओं के खिलाफ अपराधों की कड़ी का एक हिस्सा है ■ सभ्य समाज में बेटियों और बहनों के साथ ऐसी बर्बरता की अनुमति नहीं ■ महिलाओं को मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं है ■ इस बीमारी को जड़ से उखाड़ने में ईमानदारी से आत्मावलोकन जरूरी
नई दिल्ली। कोलकाता में डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की घटना ने राष्ट्रपति द्रोपदी मुुर्मू को गहरे तक आहत किया है। इस घटना पर उन्होंने पहली बार अपनी बात रखी है। उन्होंने महिलाओं के खिलाफ जारी अपराधों पर अपना आक्रोश व्यक्त किया है।
राष्ट्रपति ने एक लेख में कहा है कि कोलकाता में एक डॉक्टर के साथ बलात्कार और उसकी हत्या की जघन्य घटना ने पूरे राष्ट्र को ही सकते में डाल दिया है। जब मैने यह खबर सुनी तो मैं तो बुरी तरह स्तब्ध और व्यथित हो गई । सबसे अधिक हताश करने वाली बात तो यह है कि यह देश की कोई अकेला मामला नहीं है बल्कि यह महिलाओं के खिलाफ अपराधों की कड़ी का एक हिस्सा है।
राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने लिखा है कि कि छात्र, डॉक्टर और नागरिक कोलकाता में जब इसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं तब भी अपराधी देश में अन्यत्र शिकार की तलाश में घात लगाए हुए हैं। पीड़ितों में छोटी -छोटी स्कूली बच्चियां तक शामिल हैं। कोई भी सभ्य समाज बेटियों और बहनों के साथ इस तरह की बर्बरता की अनुमति नहीं देता। उन्होंने कहा कि इस दशा में राष्ट्र का आक्रोशित होना स्वाभाविक है और मैंं भी आक्रोशित हूं।
राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने लिखा- हाल ही में मैं एक अजीब दुविधा में फंस गई थी। जब राष्ट्रपति भवन में राखी मनाने आए कुछ बच्चों ने मुझसे मासूमियत से पूछा कि क्या उन्हें भरासा दिया जा सकता है कि भविष्य में निर्भया जैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी। मैने उस बच्चे से कहा कि हालांकि सरकारें हर नागरिक की सुरक्षा के लिए प्रतिबध्द है लेकिन आत्मरक्षा और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण सभी के लिए खास कर महिलाओं के लिए आवश्यक तो है लेकिन यह भी उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं है क्योंकि महिलाओं की कमजोरी कई कारकों से प्रभावित होती है। जाहिर है इस सवाल का पूरा जवाब हमारे समाज से ही मिल सकता है। और ऐसा होने के लिए सबसे पहले जरूरत है कि ईमानदारी और बिना किसी पूर्वाग्रह के आत्मावलोकन किया जाए।
राष्ट्रपति मुर्मू ने का हा कि समय आ गया है जब एक समाज के नाते हमें स्वयं से कुछ मुश्किल सवाल पूछने की जरूरत है। हमसे गलती क्या हुई और इन गलतियों को दूर रखने के लिए हम क्या कर सकते हैं। उन्होंंने कहा कि इन सवालों के जवाब खोजे जाते तक देश की आधी आबादी , देश की दूसरी आधी आबादी की तरह आजादी से नहीं रह सकती।
राष्ट्रपति मुर्मू ने कहा कि महिलाओं को अपनी जीती हुई एक-एक जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ा है। सामाजिक पूर्वाग्रहों के साथ साथ कुछ रीति रिवाजों और प्रथाओं ने हमेशा महिलाओं के अधिकारों के विस्तार का विरोध किया है। यह एक बहुत ही विकृत मानसिकता है। उन्होंने स्पष्ट किया और कहा कि मैं इसे पुरुष मानसिकता नहीं कहूंगी क्योंकि इसका व्यक्ति की लैंगिकता से कोई खास लेना देना नहीं है। ऐसे बहुत से पुरुष हैं जिनमें यह नहीं है। यह मानसिकता महिलाओं को कमतर इंसान, कम शक्तिशाली , कम सक्षम और कम बुध्दिमान के रूप में देखती है। और ऐसे लोग इससे भी आगे बढ़कर महिला को एक वस्तु के रूप में ही देखते हैं। राष्ट्रपति मुर्मू ने कहा कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए कुछ लोगों द्वारा महिला के रूप में पेश करने की मानसिकता जिम्मेदार है। यह भावना ऐसे लोगों के दिमाग में गहराई से बैठी हुई है।
राष्ट्रपति मुर्मू ने कहा कि अफसोस की बात है कि यह केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में है। एक से दूसरी जगह के बीच का अंतर अपराध की प्रकृति के बजाय उसके स्तर का होता है । इस प्रकार की मानसिकता का मुकाबला राज्य और समाज दोनों को ही करना होता है। राष्ट्रपति लिखती हैं कि दिसंबर 2012 में उस तत्व से हमारा सीधा आमना-सामना हुआ जब एक युवती के साथ सामुहिक बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गई। सदमें और गुस्से का माहौल था । हम दृढ़ संकल्पित थे कि किसी और निर्भया के साथ ऐसा न हो। हमने योजनाएं और रणनीतियां बनाईं। इन नई पहलों ने कुछ हद तक बदलाव किया लेकिन इसके बाद भी जब तक एक भी महिला स्वयं को वहां असुरक्षित महसूस करती रहेगी जहां वह काम करती है तब तक हमारा काम अधूरा ही रहेगा।
निर्भया जैसी कई त्रासदियां हुईं जिन्हें भुला दिया गया राष्ट्रपति मुर्मू ने लिखा कि राष्ट्रीय राजधानी में निर्भया के साथ हुई इस भयानक घटना के बाद के 12 वर्षों में इस तरह की अनगिनत त्रासदियां हुई है। कहा कि हालांकि इनमें से कुछ ने ही पूरे देश का ध्यान खींचा। उन्हें भी जल्दी ही भूला दिया गया। तो क्या हमने सबक सीखा। जैसे जैसे सामाजिक विरोध कम होते गए, ये घटनाएं सामाजिक स्मृति के गहरे और दुर्गम कोने में दब गई जिन्हें तभी याद किया जाता है जब कोई और जघन्य अपराध होता है। मुझे डर है कि यह सामाजिक विस्मृति उतनी ही घृणित है जितनी यह मानसिकता जिसके बारे में उन्होंने बात की। इतिहास अक्सर ही दर्द देता है। इतिहास का सामना करने से डरने वाले समाज सामूहिक विस्मृति लोप का सहारा लेते हैं और शुतुरमुर्ग की तरह अपने सिर को रेत में दबा लेते हैं। |
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