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शिक्षक के लिए बहुत-सी अच्छी-अच्छी बातें कही गई हैं। कोई इन्हें मोमबत्ती की तरह बताता है, जो स्वयं जलते हैं, पर प्रकाश फैलाते हैं। कोई इन्हें ईश्वर से भी अधिक महान बताता है। कोई इन्हें जीवन की नैया को पार लगाने वाला बताता है। सचमुच शिक्षक का स्थान बहुत ऊंचा है। ये महान हैं भी। पर, इनके लिए कही गई सारी बातें बड़े होकर ही सच साबित होती हैँ। बचपन में किसी को भी शिक्षक कभी अच्छे नहीं लगे। मस्ती की कुलांचे मारने वाला बचपन अपने-आप में अनोखा होता है। यह वह उम्र होती है, जिसमें कोई तनाव नहीं होता। कोई परेशानी नहीं होती। कोई इच्छा नहीं होती। न कोई जरूरी होता है, न कोई जरूरत। मस्ती...मस्ती और केवल मस्ती ही इस उम्र का दूसरा नाम है।
बचपन की उम्र बहुत तेजी से गुजर जाती है। वह उम्र इतनी बेपरवाह होती है कि उस उम्र में कुछ ऐसा सूझता ही नहीं कि हम अच्छे बनें। बुरे बनने के सारे गुण उस समय हमारे भीतर ही होते हैं। यही उम्र होती है, अपने-आप को तराशने की। इस काम का अनजाने में ही बीड़ा उठा लेते हैं, शिक्षक। शिक्षक की नजरों से कोई बच नहीं सकता। शिक्षक एक-एक बच्चे की हरकतों को अपनी आंखों में कैद कर लेते हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि कौन-सा बच्चा किस विषय में दक्ष है। किसे खेल में दिलचस्पी है, किसे गणित में और किसे केवल विज्ञान में। जिम्मेदार शिक्षक सभी बच्चों को उसकी दिलचस्पी के आधार पर तराशने का काम किया करते हैं। तराशने की यह प्रक्रिया अनजाने में ही होती है। जिसे शिक्षक तो समझते हैं, पर बच्चे नहीं समझ पाते। बच्चों को अनुशासन की एक डोर से बांधने का काम करते हैं शिक्षक। अनुशासन की वह डोर उस समय बच्चों को बहुत बुरी लगती है। वास्तव में बच्चे उन दिनों अपने आसपास एक घेरा बना लेते हैं, जिसमें वह केवल अपने दोस्तों को ही आने देते हैँ। उस घेरे में शिक्षक को नहीं लाया जाता। पर कई शिक्षक ऐसे होते हैं, जो दोस्त बनकर उस घेरे में चले आते हैं। इसका आभास बच्चे को नहीं हो पाता। इसे ही तो कहते हैं बच्चे को अनुशासन की डोर में बांधना।
बरसों बीत जाते हैं, स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद बच्चे कॉलेज पहुंच जाते हैं। नई किंतु परिपक्व शरारतों के बीच वहां उनकी प्रतिभा निखरती है। यहां के अध्यापकों का बच्चों से वैसा नाता नहीं रहता, जैसा स्कूल में होता था। यहां स्कूल के दौरान अनजाने में मिले संस्कार काम आते हैं। जिस सवाल पर बच्चे को शिक्षक ने डांटा था या मारा था, वही सवाल जब कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सामने आता है, तब वही डांट और मार ही याद आती है, इसके साथ ही कॉलेज में वही सवाल आसानी से हल हो जाता है। यहां आकर लगता है कि शिक्षक ने अकारण ही नहीं डांटा था। डांट और मार के दौरान बहुत ही बुरे लगे थे शिक्षक, आज वही शिक्षक अच्छे और भले लगने लगते हैं।
कॉलेज के बाद युवा जब जीवन के मैदान में पहुंचता है, तब चारों ओर प्रतिस्पर्धा का वातावरण होता है। ऐसे में हर कोई आगे बढ़ने की चाहत रखता है। अपने प्रतिस्पर्धी से आगे बढ़ने की चाहत के दौरान काम आती है शिक्षक की बातें। जब वे कहते कि निराशा के समय साहस मत खोना। चुनौतियों को ध्यान से देखना, समाधान भी वहीं मिलेगा। जल्दबाजी बिलकुल भी मत करना। धैर्य के साथ आगे बढ़ने की कोशिश करना। यही सीख बहुत काम आती है। इन्हीं सीखों से बनती है इरादों की बुलंद इमारत। जिसमें अपनों का प्यार होता है, दोस्तों का साथ होता है और होती हैं शिक्षकों की नसीहतें।
यहां तक पहुंचते-पहुंचते शिक्षक के प्रति बनाई गई धारणा बदलने लगती है। इस दौरान भले ही उन शिक्षकों से भेंट न हुई हो, पर अपनी नसीहतों के साथ वे अक्सर बच्चों की यादों में होते हैं। शिक्षक पर अटूट विश्वास के कारण बच्चा घर में कई बार अपने अभिभावकों से विरुद्ध चला जाता है। शिक्षक ने ऐसा कहा है, तो यही सही है। इस निष्ठा के साथ बच्चा जब जीवन के रणक्षेत्र में पहुंचता, तब वे सारे शिक्षक एक के बाद एक अतीत से निकलकर उसके सामने आ जाते हैं। तब लगता है शिक्षक बुरे नहीं होते...कभी बुरे नहीं होते। बुरी होती है वह उम्र, जब हम किसी की बात नहीं मानते थे। मस्ती के आगे हम किसी की नहीं चलने देते थे। आज सारी मस्ती एक तरफ है और शिक्षक दूसरी तरफ। तब लगता है शिक्षकों का पलड़ा भारी है, मस्ती का पलड़ा बहुत ही हलका लगता है उस समय। यादों की इस जुगाली में यदि बच्चे की आंखें गीली हो जाए, तो समझो, बचपन में वह सचमुच शिक्षकों का दुलारा रहा होगा। उसने भी शिक्षकों की समझाइश नहीं मानी थी, उसे भी डांट पड़ी होगी, उसने भी मार खाई होगी। यही है...बस यही है शिक्षकों के प्रति सच्ची आदरांजलि।
आज भी कई शिक्षक उन बच्चों को मिलते होंगे, तब बच्चों को याद दिलाना पड़ता होगा कि सर, मैं विजय, सर मैं संतोष, सर मैं मनोज, फिर भी शिक्षक को बच्चों की पहचान नहीं हो पा रही हो, तो बच्चे अपनी शरारतों से अपना परिचय देते होंगे, तब शायद शिक्षक को याद आते हैं बच्चे। कई शिक्षक इस दुनिया में नहीं होंगे, पर उनकी याद भी अक्सर याद आती होगी। शिक्षक दिवस पर ऐसे सभी शिक्षक-शिक्षिकाओं को सादर नमन्…
डॉ. महेश परिमल
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