मिर्ज़ा मसूद भले ही अपनी उम्र के अस्सी बरस को पार कर चुके हैं, लेकिन विचार और जज्बे के लिहाज से उनकी उम्र अभी भी बीस बरस के नौजवान की तरह ही है। पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाते समय वे अक्सर कहा करते थे- “सभी छात्रों को शहीद भगत सिंह की जीवनी जरुर पढनी चाहिए। यदि आप ये जीवनी नहीं पढ़ते हैं, तो आप सही अर्थों में जवान कहलाने के हकदार नहीं हैं”। पत्रकारिता के विषय में उनका कहना है कि पत्रकारिता अब गाँव में ही बेहतर हो सकती है। नई खबरें और कहानियां तो गाँव से ही निकलेंगी। अपने सिद्धांतों और उसूलों के लिए वे इतने आग्रही रहते हैं कि इसमें रत्ती भर भी समझौता उन्हें पसंद नहीं.
मेरे अंदर जो सच्चाई बहोत है
जला कुछ भी तो, आंच आई बहोत है।
नहीं चलने लगी यूँ ही मेरे पीछे
ये दुनियाँ मैंने ठुकराई बहोत है।
व सीम बरेलवी के इस अशआर को दोहराते हुए, मुझे अपने जैसे अनगिनत लोगों के गुरुदेव और रंगमंच के साथ रेडियो प्रसारण के पुरोधा आदरणीय मिर्ज़ा मसूद सर की शख्सियात जहन में उभर आती है। पत्रकारिता और कला अन्य विधाओं के बीच सामाजिक जीवन में रहते हुए हममें से हर किसी को एक से बढ़कर एक बुद्धिजीवी, कलाकार, साहित्यकार, विचारक और बहुआयामी प्रतिभा के धनी लोगों के संपर्क में आने के मौके मिलते रहते हैं। इनमें कुछ शख्स ऐसे भी होते हैं, जिनकी छाप हमारे दिलो-दिमाग में काफी गहरे तक पड़ जाती है। डोंगरगढ़ में आठवीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब मैं रायपुर आया तो यहां स्नातक होने के बाद आकाशवाणी में कदम रखते ही वरिष्ठ उद्घोषक और देश-प्रदेश के जाने-माने रंगकर्मी मिर्जा मसूद सर के संपर्क में आया। धीरे धीरे मैं उनके व्यक्तित्व के एक के बाद एक तमाम पहलुओं से परिचित होता गया। ये सिलसिला अभी भी जारी है। हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता को लेकर भी अपने काम के दौरान उनकी सलाह हमेशा मेरे काम आई। उनका कहना है कि पत्रकारिता अब गाँव में ही बेहतर हो सकती है। नई खबरें और कहानियां तो गाँव से ही निकलेंगी। कक्षा में पढ़ाते समय में भी मिर्ज़ा सर प्रायः यह कहते रहे हैं कि वंचितों और पिछड़ों के लिए खबर लिखना और उनके अधिकारों के लिए कलम चलाना ही सही अर्थ में पत्रकारिता है। पिछले करीब 34 वर्षों की मुलाकात के दौरान मैंने यह पाया और महसूस किया कि मिर्ज़ा सर के व्यक्तित्व को किसी एक खास तरह के खांचे में नहीं बांधा जा सकता। वे रंगकर्म के बहुत ही माहिर और जीनियस व्यक्ति हैं। वे रंगमंच को बहुत गहराई से समझते हैं और रंगमंच उनकी रग-रग में समाया हुआ है। इसके अलावा उन्होंने आकाशवाणी में उद्घोषक के रूप में अपना लम्बा करियर बिताया। वहां भी जब मेरी तरह अन्य युवा साथी युववाणी कम्पीयर और नैमित्तिक उद्घोषक के रूप में कार्य करते समय उनके संपर्क में आये, तो उन्होंने कुछ ऐसी बारीक बातें हमें बताई, जो आमतौर पर उद्घोषणा करने वाला कोई और व्यक्ति शायद ही बता पाता। जैसे भारी ध्वनि वाले अक्षरों को किस तरह से माइक्रोफोन पर बोला जाए। उदाहरण के रूप में - ढ, ध, भ, फ जैसे अक्षरों का उच्चारण करते हुए हमारे मुंह से जो श्वास निकलती है, उसकी हवा माइक्रोफोन से टकराने न पाए और उसका स्वर-आघात इतना ज्यादा न हो, कि कानों को अप्रिय लगने लगे। जाहिर है, यह सलाह ध्वनि-विज्ञान का कोई मर्मग्य ही दे सकता है
उसूलों से समझौता पसंद ही नहीं
मिर्ज़ा सर के व्यक्तित्व का सबसे प्रेरक पक्ष यह है कि अपनी शर्तों पर काम करते हुए भी उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्हें छत्तीसगढ़ राज्य शासन का चक्रधर सम्मान और चिन्हारी सम्मान सहित दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन.एस.डी) में भी विशेष सम्मान प्राप्त हो चुका है। इनके अलावा भी उन्हें अन्य अवसरों पर विविध सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। लेकिन वे स्वयं नाटकों के मंचन के समय दर्शकों की प्रतिक्रिया को ही अपना सबसे बड़ा पुरस्कार और प्रतिसाद मानते हैं।
भले ही वे उम्र के अस्सी बरस को पार कर चुके हैं, लेकिन विचार और जज्बे के लिहाज से उनकी उम्र अभी भी बीस बरस के नौजवान की तरह ही है। जब वे महंत लक्ष्मीनारायण दास महाविद्यालय में पत्रकारिता की कक्षा में अतिथि प्राध्यापक के रूप में हमें पढ़ाने आते थे, तो अक्सर कहा करते थे- “आप सभी छात्रों को शहीद भगत सिंह की जीवनी जरुर पढनी चाहिए। यदि आप ये जीवनी नहीं पढ़ते हैं, तो आप जवान कहलाने के हकदार भी नहीं हैं”। अपने सिद्धांतों और उसूलों के लिए वे इतने आग्रही रहते हैं कि इसमें रत्ती भर भी समझौता उन्हें पसंद नहीं। उनके इस रवैये और जीवन को जीने के अलहदा अंदाज़ पर मुझे सुप्रसिद्ध साहित्यकार नारायणलाल परमार की ये पंक्तियां बरबस याद आ जाती है।
प्रलोभन थे, मगर मन के नियम-संयम नहीं डूबे
उमड़ती आत्मा के द्वीप सुन्दरतम नहीं डूबे
जहां पागल अँधेरे की ज़रा सी एक धमकी पर
दमकता सूर्य भी डूबा, वहां पर हम नहीं डूबे
अपनी बातों को ठोस तरीके से कहना हो तो वे अक्सर कृष्ण बिहारी नूर, जौन एलिया और वसीम बरेलवी जैसे तमाम शायरों को याद करते हुए उनके अशआर कह दिया करते हैं। इसी कड़ी में कुछ कम चर्चित लेकिन उम्दा शायरों के अशआर भी उन्हें इस तरह याद आ जाते हैं, कि सुनने वाला लाजवाब हो जाता है। जैसे उसूलों की बात पर ही जनाब शकील जमाली का ये शे’र उनकी जुबान पर अनायास आ जाता है, जो मैंने अक्सर सुना है...
न टूटने की जशारत में टूट जाते हैं
कुछ आईने तो बस हिफाजत में टूट जाते हैं
मियां शकील जमाली अच्छे अच्छों के उसूल
शराब की एक दावत में टूट जाते हैं
अंग्रेजी साहित्य में भी समान रूचि
....और हर बार की तरह सर से अशआर सुनने के बाद मुझे जो प्रोत्साहन मिलता है, वही मेरा प्रसाद है। हिंदी और उर्दू के साथ ही मिर्ज़ा सर से दुनिया के श्रेष्ठ अंग्रेजी साहित्य पर भी दुर्लभ जानकारियाँ मुझे हमेशा मिलती रहीं। यह जानकारी मुझे अंग्रेजी साहित्य में एमए की परीक्षा के समय ख़ास तौर पर बहुत काम आई। वे विश्व के प्रायः सभी नोबेल विजेता साहित्यकारों की किताबें पढ़ते रहे हैं और अभी भी पढ़ते हैं। बात-चीत के दौरान विक्टर ह्यूगो, अर्नेस्ट हेमिग्वे, जार्ज ओरवेल, टी.एस। इलियट, फ्रेंज काफ्का, अल्बर्तो मोराविया, एन्तन चेखव सहित न जाने कितने नए-पुराने साहित्यकारों की किताबों और उनके पात्रों का जिक्र सरसरी तौर पर कर दिया करते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह सब कुछ उन्हें याद भी खूब रहता है। उनकी गजब की याददाश्त पर उनका ही बताया एक वाकया याद आया। एक बार बात ही बात में उन्होंने मुझे बताया- (उन्हीं के शब्दों में सुनिये)- “अभी मैं अपने बहुत ही अन्तरंग मित्र प्रो। गुणवन्त व्यास (अब नहीं रहे) के साथ बैठा था। वहां उन्होंने ग़ज़ल के बदलते दौर पर चर्चा छेड़ दी। मैं भी रौ में आ गया। मैंने सिर्फ “ग़ज़ल” और “शायरी” लफ्ज़ पर मुश्तमिल सौ से ज्यादा अशआर सुनाये। बड़ा मज़ा आया। तुम चूक गए। तुम्हे शायरी का बहुत शौक है ना ? तुम्हें वहां होना चाहिए था। खैर ... ” तो ऐसे हैं मिर्ज़ा सर। उनकी इसी खूबी की वजह से चाहने वाले, उन्हें चलता-फिरता पुस्तकालय भी कहते हैं।
उनकी पढने की रुचि के तो कहने ही क्या? मैंने उनके अध्ययन कक्ष में साथ बैठकर प्रायः हर विषय की दुर्लभ किताबों का जो संग्रह देखा है, वह उनके ज्ञान-पिपासु होने की तस्दीक करता है। इतने के बाद भी वे खुद को साहित्य का विद्यार्थी ही कहना पसंद करते हैं। बच्चों के मनोविज्ञान की जितनी गहरी समझ मैंने उनमें देखी, उसके आधार पर उन्हें व्यवहार-विज्ञानी कहना भी गलत नहीं होगा। मेरी जुड़वां बेटियों से मिलने पर मिर्ज़ा सर ने उनके लालन-पालन से जुडी कुछ बेहद जरुरी हिदायत देने के साथ-साथ यह बात भी ख़ास तौर पर कही कि मैं उन्हें कहानी जरुर सुनाया करूँ। उनका कहना है कि जिस मनुष्य के जीवन में कहानी नहीं हो, वह इंसान के रूप में ख़त्म हो जाता है। उनके व्यक्तित्व का एक अन्य दुर्लभ और उजला पहलू यह है कि वे आज भी विश्व की चर्चित और क्लासिक फ़िल्में देखना नहीं भूलते। उनके साथ बातचीत यदि लम्बी चल निकली, तो एक न एक बार “आस्तिक-नास्तिक” के विषय पर भी बात हो ही जाती है। इस पर सर का बहुत ही साफ़ नजरिया है, जैसा एक सुलझे और सुदीर्घ अनुभव से पके हए माहिर कलाकार का हो सकता है। ऐसी चर्चाओं के अंत में वे अपने पसंदीदा शायरों में से एक फ़िराक गोरखपुरी का यह मकबूल शे’र सुनाना नहीं भूलते...
ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की,
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी।
खुदा को पा गया वाइज़ मगर है,
ज़रूरत आदमी को आदमी की।
उम्र के आठ दशक पार करने के बाद भी उनके तेवर में कोई कमी नहीं आई है। उनके पास बैठने पर अभी भी आंच लगती है। मेरी पीढ़ी के अनेक लोगों के लिए वे गुरु ही हैं, जिनका साथ हर कोई हमेशा चाहता है, ताकि उनसे बहुत कुछ सीख सकें और आत्मसात कर सकें। हम जैसों की इस जरूरत को बशीर बद्र साहब की ये ग़ज़ल बहुत ही मौजूं तरीके से बयान करती है...
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में,
कि मेरी नज़र को ख़बर न हो।
मुझे एक रात नवाज़ दे,
मगर इसके बाद सहर न हो।
कभी दिन की धूप में झूमकर,
कभी शब के फूल को चूमकर।
यूँ ही साथ साथ चलें सदा,
कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो।