सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे और इनका अब तक पता नहीं था. रोज तो आठ साढ़े आठ तक मॉर्निंग वाक से लौट आते हैं. रोज की तरह चाय और नाश्ता बनाकर मैं इंतजार कर रही थी. और झूठ क्यों बोलूं-मुझे भूख लग आयी थी. रोज की आदत जो ठहरी.
कितनी बार कहा है कि मोबाइल साथ रख लिया करो तो मना कर देते हैं. कहते हैं- कुछ देर के लिए तो इस बला से मुक्ति मिले. माथुर को देखता हूं न! हर पांच मिनिट पर फोन घनघनाता रहता है- तंग आ जाता है पर मोबाइल नहीं छोड़ता. कभी-कभी सोचता हूं- मोबाइल नहीं थे तब भी तो लोग जीते थे-और चैन से जीते थे.
देर होने लगती है तो चिंता हो जाती है. मन में अजीब-अजीब खयाल आने लगते हैं. एक बार कपूर साहब बाइक से टकरा गये थे. डेढ़ महीने के लिये प्लास्टर लग गया था. एक बार गुप्ताजी के पैर में मोच आ गयी थी. तो रिक्शे में घर पहुंचाना पड़ा था. आठ दिन तक मालिश होती रही तब जाकर ठीक से चल पाये थे. सभी तो उम्रदराज हैं- इसीलिए चिंता होती है.
ये लेकिन बहुत नाराज होते हैं. कहते हैं- ‘तुम्हारे मन में हमेशा बुरे ख्याल ही क्यों आते हैं. कभी अच्छा भी तो सोचा करो.’ फिर मैंने अच्छा सोचना शुरू किया. हो सकता है आज किसी का जन्मदिन हो. जन्मदिन मनाने के लिए ये लोग सैर के बाद सीधे छप्पनभोग चले जाते हैं.
मैंने सोच लिया कि दस बजे तक प्रतीक्षा करूंगी और फिर नाश्ता कर लूंगी. भूख तो खैर मैं बर्दाश्त कर लूंगी. पर दुनियाभर की दवाइयां जो लेनी होती हैं, उससे पहले पेट में कुछ डालना भी जरूरी है.
मैं अपने विचारों में खोई हुई थी कि दरवाजे की घंटी बजी. लपक कर दरवाजा खोला. उलाहना की झड़ी लगाने ही वाली थी कि देखा- दरवाजे पर ये नहीं माथुर साहब थे- वो भी सपत्नीक. माथुर साहब-तो खैर आते ही रहते हैं पर इतनी सुबह उनकी पत्नी को देख कर आश्चर्य हुआ. नौकरीवाली बहू हो तो सास का असमय बाहर निकलना असंभव ही होता है. सोचा-शायद कोई निमंत्रण देने आये हैं. पर मिसेस माथुर घरेलू साड़ी में थी. ऐसे कपड़ों में कोई निमंत्रण देने नहीं जाता.
-भाभी जी, चाय पिलाइए, उन्होंने मेरी विचार तंद्रा को भंग करते हुए कहा- ‘आपके यहां तो बनी रक्खी है. चलिए, इसी में हिस्सा बांट कर लेते हैं.‘
मैंने तीन मग्स में चाय डाली और शुगर पॉट सामने कर दिया.
-आप ये समोसा लीजिए, गरम है, उन्होंने पॅकेट मेरे सामने करते हुए कहा- ‘बच्चों के लिए ले जा रहे थे, सोचा दो-चार आप लोगों के लिये भी ले लें.‘
समोसा खाते हुए मैंने पूछा-‘आज आप मॉर्निंग वॉक पर नहीं गये.’
‘ऐसा कहीं हो सकता है भला’ मिसेस माथुर बोलीं- ‘दुनिया चाहे इधर की उधर हो जाये सुबह की सैर नहीं रुक सकती.’
माथुर साहब ने आंखें तरेरकर पत्नी की ओर देखा पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तीर कमान से, निकल चुका था. अधखाया समोसा प्लेट में छोड़कर मैंने पूछा- ‘अपने दोस्त को कहां छोड़ आये?’
‘आप नाश्ता कर लीजिए, फिर बताता हूं.’
‘खा लिया मैंने जितना खाना था. अब आप फौरन बताइए. मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’
‘घबराने की कोई बात नहीं है भाभी-सब ठीक है.’
-फिर इन्हें कहां छोड़ आये?
‘देखिये- शांति से सुनिए, हम लोग पार्क से चलने को हुए तो मनोहरजी को एकदम चक्कर आ गया.’
‘फिर, गिर गये क्या? ज्यादा चोट तो नहीं आयी?’ मेरा तो कलेजा मुंह को आ गया था.
‘गिरते कैसे? हम सब साथ जो थे. फिर हमने सोचा, पास में तो सार्थक नर्सिंग होम है. वैसे बी.पी. वगैरह चेक कर लेते हैं.’
‘फिर?‘
‘फिर कुछ नहीं. ड्यूटी डॉक्टर ने बी.पी. चेक किया. ठीक था. फिर वह बोला- ग्यारह बजे बड़े डॉक्टर साहब आयेंगे. एक बार उन्हें दिखा लेते हैं. इसलिए हम उन्हें वहीं छोड़ आये हैं. गुप्ता पास में बैठा है.’
‘भाई साहब! प्लीज मुझे ले चलिए. मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’
‘आपको लेने के लिए ही आया था मैं. ऑटो खड़ा किया हुआ है. बस सोच रहा था आप मुंह में कुछ डाल लेतीं- खैर चलिए.’
मैंने फटाफट घर बंद किया और उनके साथ चल पड़ी. रास्ते में हमने मिसेस माथुर को उनके घर छोड़ा और सीधे नर्सिंग होम की राह ली. मेरे मन में इतनी बुरी-बुरी कल्पनाएं आ रही थीं. पर जब पहुंचकर देखा कि ये और गुप्ता जी मजे से कमरे में बैठकर गप्पे मार रहे हैं तो मेरी जान में जान आयी.
‘डॉक्टर आ गये?’ माथुर ने पूछा.
‘राउंड ले रहे हैं. उसके बाद देखेंगे.’
कुछ देर बाद ही बुलावा आ गया. ये दोस्तों के साथ चले गये. मैं कमरे में बैठी रही. अच्छा हुआ जो इन लोगों ने कमरा ले लिया था नहीं तो बाहर बरामदे में बैठना पड़ता.
कोई आधा घंटा बाद तीनों लौट आये. रिपोर्ट अच्छी थी. मतलब अभी कुछ वैसा नहीं लग रहा है. हो सकता है काफी देर तक धूप में बैठने के कारण हुआ हो या उठते समय कोई नस खिंच गयी हो. पर डॉक्टर का कहना था- एक बार किसी न्यूरालाजिस्ट को दिखा लेते हैं. शाम की अपॉइंटमेंट भी ले ली थी. नर्सिंग होम के ही एसोसियेट स्पेशलिस्ट हैं. वे शाम को आयेंगे.'
मैंने उन दोनों से कहा-‘आप लोग अब घर जाइए. मैं इनके पास हूं.’ जाने से पहले वे दोनों हमारे लिए चाय-बिस्किट ऑर्डर कर गये. दोपहर को मिस्टर और मिसेस कपूर खाना लेकर आ गये. शाम को कपूर दंपत्ति चाय और सैंडविच लेकर आ गये. जब उन्हें पता चला डॉक्टर आने वाले हैं तो वे रुके रहे.’
इन डॉक्टर साहब ने भी ओ.के. रिपोर्ट दी और कहा- दुबारा ऐसा हुआ तो तुरंत संपर्क कीजिए. अपन एमआरआई कर लेंगे. नर्सिंग होम वाले डॉक्टर की सलाह थी- आज रात रुक जाइए. सुबह तसल्ली के साथ घर जाइए.
‘सब पैसे कमाने के धंधे हैं’- ये भुनभुनाये.
मैंने कहा- ‘वे तो हमें बुलाने नहीं आये थे. हमीं दौड़कर उनके पास आये थे. तो अब उनकी तसल्ली तक रुक जाइए. शायद उन्होंने किसी कारण से यह सलाह दी हो.’
सात बजे माथुर साहब आये. बोले-‘मुझे लगा डिस्चार्ज मिल जायेगा, इसलिए नितिन के लिए रुका रहा. गाड़ी लेकर आया हूं.’
-तो ऐसा करते हैं, नितिन तुम आंटी को घर छोड़ दो और गुप्ता से कह दो- रात को यहां रुक जायें, वो आ जायेंगे तो मैं ऑटो करके आ जाऊंगा.
‘मैं रुक जाती हूं.’ -मैंने कहा.
‘नहीं भाभी जी- ये आपके बस की बात नहीं. रात को जरूरत पड़ी तो कोई दौड़-भाग करने वाला चाहिए. मैं ही रुक जाता पर इन दिनों मेरी तबीयत भी जरा ढीली चल रही है. इमरजेंसी में किसी काम का नहीं हूं मैं.’
नितिन ने मुझे घर छोड़ा. मुझसे चाबी लेकर गेट खोला, फिर मेन दरवाजा खोला. फिर मेरे हाथ में एक टिफिन थमा कर बोला- ‘मम्मी ने आपके लिए खाना भेजा है. अंकल के परहेज का पता नहीं था.’
‘कोई बात नहीं बेटा, अब तुम घर जाओ. दफ्तर से लौटकर सीधे चले आये हो. पता नहीं चाय भी पी है कि नहीं? बनाऊं.’
‘चाय पीकर ही चला था. आप तकलीफ न करें. हमारा नम्बर तो है न आपके पास. जरूरत हो तो कॉल कर लीजियेगा. मैं चलूं?’
उसके जाने के बाद मैं कितनी देर तक सुन्न होकर बैठी रही. इनकी तबीयत का कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सब कुछ ठीक-ठाक है बता रहे थे- फिर रात भर के लिए रोक भी रहे थे. पता नहीं क्या हुआ है.
खाने का जरा मन नहीं था. थोड़ा-सा मुंह जुठार कर मैंने खाना फ्रिज में डाल दिया. टीवी देखने की कोशिश की. मन नहीं लगा. कुछ पढ़ने की भी इच्छा नहीं हुई. तो नौ बजे ही गेट में ताला डालकर मैंने बत्तियां बुझा दीं.
अपने विचारों में खोई हुई मैं करवटें बदल रही थी कि अचानक गेट की घंटी बजी. इतनी रात गये कौन होगा? मैंने तुरंत बाहर की बत्ती जलायी और खिड़की से झांककर देखा- ‘भाभीजी, गेट खोलिए.’ गुप्ता जी की आवाज थी. मेरा दिल बुरी तरह धड़क उठा. गुप्ता जी इस समय यहां क्या कर रहे हैं. उन्हें तो नर्सिंग होम में होना था. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्हें डिस्चार्ज मिल गया हो.
बदहवास-सी गिरते-पड़ते मैं बाहर पहुंची. गेट खोलते हुए मैंने कहा- ‘गुप्ताजी, आप इतनी रात को? सब ठीक तो है ना.’
‘इतनी रात कहां भाभी. अभी साढ़े नौ ही बजे हैं.’- उन्होंने भीतर आते हुए कहा. अब मैंने देखा कि उनके साथ उनका पोता भी है. मुझे प्रणाम करके बालक एक ओर खड़ा हो गया.
‘आप तो नर्सिंग होम जानेवाले थे न.’
‘जानेवाला था पर राहुल ने मना कर दिया. बोला कोई इमर्जेन्सी होगी तो पहले आप के हाथ-पांव फूल जायेंगे. इससे अच्छा है मैं चला जाता हूं. बस सुबह मुझे जल्दी रिलीव्ह कर दीजिए- तो वो नाइट ड्यूटी पर चला गया. आपके लिए मैं शौनक को ले आया हूं.’ उन्होंने पोते को आगे करते हुए कहा- ‘यूं तो पूरा कुम्भकर्ण है. पर कोई साथ रहेगा तो आपको हौसला बना रहेगा.’
सच, किसी के साथ होने की कल्पना मात्र से ही मुझे बड़ी राहत मिल गयी.
‘अच्छा बेटे, मैं चलता हूं.’ उन्होंने बेटे की पीठ थपथपाते हुए कहा- ‘दादी को तंग मत करना और होशियारी से रहना.’
उनके जाने के बाद मैंने गेट में ताला डाला और भीतर आ गयी. हॉल का दरवाजा बंद करते हुए मैंने शौनक से कहा- ‘दो मिनिट रुकना बेटा, मैं गेस्ट रूम के बेड रूम की चादर बदल दूं.’
‘नहीं दादी-मैं यहीं दीवान पर सो रहूंगा. बस ओढ़ने के लिए कुछ दे दीजिए.’
मैंने दीवान पर उसका बिस्तर लगाते हुए कहा- ‘बेटा, यहां भी टीवी है. कुछ देखना चाहो तो देख लो.’
‘नहीं दादी- मैं थोड़ा पढ़ूंगा. एक्जाम चल रहे हैं न!’
मुझे इतना संकोच हो आया- ‘मेरी वजह से तुम्हारी पढ़ाई मारी गयी.’
‘वैसे भी रात में मैं कितना पढ़ लेता. बस थोड़ा देख लूंगा. और आप गेट की चाबी मुझे दे जाइए. मैं सुबह चुपचाप निकल जाऊंगा.’
‘वाह! ऐसे कैसे निकल जाओगे. चाय पीकर जाना. बस मुझे एक बार आवाज दे लेना.’
उसके लिए दूध का गिलास और पानी की बॉटल रखकर मैं सोने चली गयी. पर देर रात तक नींद नहीं आयी. दिनभर का घटनाक्रम आंखों के आगे घूमता रहा. पता नहीं कब आंख लगी. सुबह उठी तो कमरे में धूप फैल चुकी थी. हड़बड़ाकर उठी- देखा, गुप्ताजी का पोता चला गया था. गेट का ताला चाबी टेबल पर रक्खा था. कम्बल और चादर तहाकर रक्खे हुए थे. भीतर डायनिंग टेबल पर दूध की थैलियां रक्खी हुई थीं. मुझे उस पर बड़ा प्यार आ गया. कितना सलीकेदार बच्चा है.
चाय पीकर मैं फटाफट नहा ली. अस्पताल से कोई फोन आये तो रिसीव करने के लिए तो कोई चाहिए. करीब साढ़े दस बजे माथुर साहब का फोन आया- ‘भाभी! डॉक्टर का राउंड हो जाने के बाद हम लोग आ जायेंगे. आप नाश्ता कर लीजिए. भाई साहब को यहां करा दिया है- वे कुछ कह रहे हैं, सुन लीजिए.’
‘सुनो-’ इन्होंने कहा- ‘मेरा बिस्तर बाहर दीवान पर ही लगा देना.’
इतना ताव आया, बीमारी में भी दरबार लगा कर बैठेंगे. पर फिर दिनभर घर में ऐसा मेला लगा रहा कि लगा इनका कहना ठीक था. बेडरूम में किस-किस को ले आते, कहां बिठाती.
ये लोग कोई डेढ़ बजे घर लौटे. माथुर साहब ने माफी मांगते हुए कहा- ‘सॉरी भाभीजी- आपको बहुत इंतजार कराया. दरअसल हम नितिन की राह देख रहे थे. वह लंच आवर में ही आ पाया.’
कहने का मन हुआ कि टैक्सी कर लेते. पर ऐसा कहकर उनके सदाशयता का अपमान करने की इच्छा नहीं हुई.
इनके आते ही दो दिन से भांय-भांय करता घर एकदम गुलजार हो उठा. रात तक आनेवालों का तांता लगा रहा. जो लोग नर्सिंग होम नहीं पहुंच पाये थे वे क्षमा याचना करते हुए घर आ गये. मुझे दिनभर सांस लेने की फुरसत नहीं मिली. रात नौ बजे के बाद यह रेला थमा तो मैंने फटाफट खिचड़ी चढ़ा दी.
खाने पर बैठते ही इन्होंने बुरा-सा मुंह बना लिया. ‘मैं इतना बीमार नहीं हूं भाई. कल से दलिया और खिचड़ी खिला-खिला कर तुम लोगों ने सचमुच मुझे बीमार कर दिया है.’
‘सॉरी' मैंने क्षमायाचना करते हुए कहा- ‘पर ये खिचड़ी आपकी बीमारी के उपलक्ष्य में नहीं है. दरअसल मुझे कुछ बनाने का समय ही नहीं मिला. देख तो रहे हैं- दिनभर कैसी हायतौबा मची हुई थी.’
‘इसीलिए तो कहता हूं एक कुक रख लो. पर तुम्हारी एक ही रट है- दो जनों का खाना होता ही कितना है.’
हम दोनों के बीच यह शाश्वत वाद था. इसलिए मैंने जवाब नहीं दिया और चुपचाप खाना खाती रही. मेरी आंखें झपकने लगी थीं. दिनभर जरा भी कमर सीधी करने का मौका नहीं मिला था.
हम लोग सोने जा रहे थे कि फोन की घंटी बजी. बिस्तर के पास रक्खा कॉर्डलेस इन्होंने फट से उठा लिया- उधर से आवाज आते ही इन्होंने स्पीकर ऑन कर दिया. समझ गयी कि सोहम होगा. बच्चों का फोन होता है तो हम लोग स्पीकर ऑन कर लेते हैं.
‘पापा आप घर पर हैं? डिस्चार्ज मिल गया?’
‘हां बेटा- दोपहर में ही घर आ गया था.’
‘डॉक्टर क्या कहते हैं.’
कह रहे थे- चिंता की कोई बात नहीं है. दुबारा ऐसा हुआ तो जांच कर लेंगे.
‘बिल कितना हुआ? वैसे जितना भी हुआ हो- मैं पैसे भेज रहा हूं. आपके अकाउंट में चेक कर लीजिएगा.’
‘बिल का पता नहीं बेटा. माथुर ने ही पे किया था. मैं पूछ-पूछ कर हार गया पर उसने बताया नहीं. माथुर, गुप्ता, कपूर, शरन, इन लोगों ने बहुत मदद की बेटा. हमें महसूस ही नहीं होने दिया कि हम लोग यहां अकेले हैं. बेटे, एक काम करोगे?
‘बोलिये पापा.’
‘मैं इन सब के नम्बर भेज देता हूं. तुम सबको एक-एक थैंक्यू का फोन कर लेना.’
‘वह बहुत ऑड नहीं लगेगा? इससे तो अच्छा है मैं कुछ थैंक्यू कार्ड्स भेज देता हूं. आप सबको दे दीजियेगा.’
‘यह कुछ ज्यादा ही औपचारिक नहीं लगेगा?’
‘तो पापा ऐसा करते हैं- मैं अगली बार आऊंगा तो सबके लिए गिफ्ट्स लेकर आऊंगा- और खुद सबके घर जाकर दे आऊंगा. ठीक है?’
‘हां ठीक है' इन्होंने बेमन से कहा. शक्ल से साफ जाहिर था कि उन्हें यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया है. फोन रखते ही बोले- ‘सोहम को किसने खबर की थी?’
‘मैने, और कौन करेगा.’
‘मना किया था न!’
‘आपके मना करने से क्या होता है. जरा मेरी भी तो सोचिए. चिंता के मारे प्राण निकले जा रहे थे. बच्चों से ही तो शेयर कर सकती थी.’
‘तो सोनिया को भी फोन किया होगा. जानती हो न कि कितनी हायपर है. रो-रो कर घर भर दिया होगा उसने. संजीव बेचारे परेशान हो गये होंगे।’
‘उसे फोन नहीं करती तो वह मेरे प्राण ले लेती कि उतनी दूर भैया को यू.एस.ए. में खबर की और मुझे हैदराबाद में फोन नहीं कर सकीं.’
‘प्राण तो अब भी ले लेगी कि पापा को घर आये आठ घंटे हो गये हैं और तुमने मुझे खबर भी नहीं की?’
‘मेरे पास समय भी था? और सोनिया को फोन करने का मतलब है आधा घंटा रिसीवर से चिपके रहना. अब सुबह उठते ही उसे फोन कर दूंगी. कह दूंगी-पापा रात आठ बजे घर आये थे.’
‘तुम्हारा झूठ चार कदम भी चल नहीं पायेगा- देख लेना.’
मैंने सोच लिया था, सुबह उठते ही सोनिया को फोन कर दूंगी. पर ऐसा कहां हो पाता है. सुबह-सुबह इतने सारे काम मुंह बाये सामने खड़े हो जाते हैं कि और कुछ याद ही नहीं रहता. आखिर नौ बजे उसी का फोन आ गया- ‘मम्मी! पापा कैसे हैं?’
‘अच्छे हैं, नहाने गये हैं.’
‘मतलब घर आ गये हैं. और तुमने मुझे बताया भी नहीं.’
‘कब बताती. शाम को सात बजे आये हैं और दरबार लगाकर बैठ गये. मेरा तो एक पैर किचन में, एक ड्राइंग रूम में-ऐसी अवस्था थी.’
‘तो सबकी खातिरदारी करना जरूरी था. मम्मी! ऐसे में कोई आपसे स्वागत सत्कार की अपेक्षा नहीं करता.’
‘बेटा, घर आये मेहमान को एक कप चाय तो पिलायी जा सकती है. तुम्हें पता नहीं है इन लोगों ने कितनी मदद की है. कितना सहारा दिया है. इनके पास रात दिन कोई न कोई बैठा रहा. गुप्ताजी का बेटा रात को अस्पताल में सोया. उनका पोता मेरे लिए परीक्षा के बावजूद यहां रुका. सबके यहां से चाय नाश्ता आता रहा. और कल इन्हें लाने के लिए माथुर साहब का नितिन लंच ऑवर में गाड़ी लेकर आया था.’
‘तुम ही कह रही थीं, पापा शाम को घर आये थे.’
ये ठीक ही कह रहे थे. मेरा झूठ चार कदम भी नहीं चल पाया था. उसी समय मुझे अगरबत्ती की सुगंध आयी. ये नहा चुके थे और सांई बाबा के आगे अगरबत्ती जला रहे थे. मैंने आवाज देकर कहा- आपकी लाडली का फोन है- बात कर लीजिये.
इन्हें फोन पकड़ाकर मैंने राहत की सांस ली. अब वह पापा के साथ शुरू हो गयी थी- ‘पापा आप लोग इतने अभिभूत क्यों हो रहे हैं? अड़ोसी-पड़ोसी तो मदद करते ही हैं. आप भी तो सबके लिए दौड़भाग करते रहे हैं. कपूर अंकल की माताजी सीढ़ियों से गिर गयी थीं तो आप ही उन्हें अस्पताल ले गये थे. गुप्ता अंकल के राहुल की नौकरी एक तरह से आपने ही लगवायी है. आप की ही सिफारिश काम आयी थी. और माथुर अंकल की पिंकी की शादी में अपनी गाड़ी आठ दिन तक दौड़ती रही है. लौटने पर उसे सीधे गैराज में ही भेजना पड़ा था.’
फोन रखने के बाद कितनी देर तक ये चुप हो गये थे. फिर नाश्ता करते हुए बोले- ‘अपने बच्चे कितने प्रैक्टिकल हो गये हैं.’
‘प्रैक्टिकल नहीं, संवेदनशून्य कहिए.’
‘मैं सोचता हूं क्या राहुल और नितिन ने भी अपने मां-बाप से ऐसी ही हुज्ज्त की होगी?’
‘अब फालतू बातें सोचकर अपना दिमाग मत खराब कीजिए. बस इतना याद रखिए कि उन बच्चों ने अपनी कितनी सेवी की है.’
‘वही तो. वही तो समझ नहीं पा रहा हूं कि इन लोगों के एहसानों का बदला कैसे चुकाऊंगा.’
‘अब उसकी टेंशन लेकर बीमार मत पड़ जाना. एक बात कहूं- जब हम किसी के अहसानों का बदला चुकाने की बात सोचते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से हम उनके लिए किसी विपत्ति की कामना करते हैं- ताकि उनकी मदद करने का अवसर मिले.’
इनकी आंखें एकदम चमक उठीं- ‘अरे वाह! तुमने तो यह बड़ी अच्छी बात कह दी.’
‘यह मेरी बात नहीं है. सदियों पहले, वाल्मीकि जी ने कह रक्खी है. सीता जी का पता ठिकाना पा जाने के बाद श्रीराम प्रभु ने हनुमानजी से कहा कि- ‘वत्स तुमने मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है. मैं तुम्हारा ऋणी हो गया हूं. क्योंकि इसका अर्थ होगा तुम्हारे अनिष्ट की कामना करना.’ गोसाईं जी भी कहते हैं- सुनु सुत तोहे उरिन मैं नाही.’
सो-रिलैक्स
बार-बार इसरार करने के बाद माथुर साहब ने बिल दिखाया. पैंतीस हजार का था.
‘एक रात भर के पैंतीस हजार?’ मेरे मुंह से एकदम निकल गया. वे बोले- ‘कमरे का किराया, नर्सिंग चार्जेस, दो तीन टेस्ट कराये थे उनकी फीस, दवाइयां, कमरे में एक बार झांक जाने की डॉक्टरों की फीस- और सबसे जानलेवा फीस उन स्पेशलिस्ट महोदय की थी.’
‘चलिए, ये ठीक-ठाक होकर घर आ गये- इस बात के लिए कोई भी कीमत ज्यादा नहीं है.’
दो तीन दिन बाद ये बोले- ‘चलो जरा माथुर के यहां हो आते हैं.’
‘किसलिये?‘
‘उसके पैसे नहीं देने हैं?'
‘मुझे लगा-आपने उसी दिन चेक दे दिया होगा.'
‘दे सकता था पर नहीं दिया. वह निरी औपचारिकता होती. घर जाकर देंगे तो धन्यवाद ज्ञापन होगा.’
मुझे उनकी बात ठीक लगी.
हम दोनों को देखकर माथुर साहब बहुत खुश हुए. उन्होंने फोन करके गुप्ता लोगों को भी बुला लिया. खूब गपशप हुई. चाय-नाश्ता हुआ. इनसे वादा लिया गया कि कल से मॉर्निंग वॉक फिर से शुरू करेंगे.
घंटा डेढ़ घंटा महफिल जमाने के बाद ये उठ खड़े हुए. बड़े अदब के साथ इन्होंने माथुर साहब को चेक थमाया.
‘इतनी जल्दी क्या थी बिरादर! कुछ दिन तो मेरे कर्जदार बने रहते- मजा आता.’
‘सिर्फ पैसे ही तो लौटा रहा हूं भैया. बाकी सब तो लौटाया नहीं जा सकता और मैं लौटाना चाहता भी नहीं हूं. आप सब का यह कर्ज मुझ पर हमेशा बना रहे-यही कामना है.’
यह सब कहते हुए इनका चेहरा एकदम प्रसन्न और तनाव रहित लग रहा था.
कोई हफ्ते भर बाद ये इतना खुलकर हंसे थे.
[कहानी समाप्त ]
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पद्मश्री मालती जोशी , संक्षिप्त परिचय

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मालती जोशी एक हिन्दी लेखिका हैं, जिन्हें २०१८ में साहित्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदानों के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया गया। मालती जोशी का जन्म ४ जून १९३४ को औरंगाबाद में हुआ था। आपने आगरा विश्वविद्यालय से वर्ष १९५६ में हिन्दी विषय से एम.ए. की शिक्षा ग्रहण की। अब तक अनगिनत कहानियां, बाल कथायें व उपन्यास प्रकाशित कर चुकी हैं। इनमें से अनेक रचनाओं का विभिन्न भारतीय व विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी किया जा चुका है। कई कहानियों का रंगमंचन रेडियो व दूर दर्शन पर नाट्य रूपान्तर भी प्रस्तुत किया जा चुका है। कुछ पर जया बच्चन द्वारा दूरदर्शन धारावाहिक सात फेरे का निर्माण किया गया है तथा कुछ कहानियां गुलज़ार के दूरदर्शन धारावाहिक किरदार में तथा भावना धारावाहिक में शामिल की जा चुकी हैं। इन्हें हिन्दी व मराठी की विभिन्न व साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत किया जा चुका है। मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वर्ष १९९८ के भवभूति अलंकरण सम्मान से विभूषित किया जा चुका है। मालती जोशी जी कि कहानियां मन को छूने वाली होती हैं। अपनी कहानियों के बारे में, वे कहती हैं,
" जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों को, स्मरणीय क्षणों को मैं अपनी कहानियों में पिरोती रही हूं। ये अनुभूतियां कभी मेरी अपनी होती हैं कभी मेरे अपनों की। और इन मेरे अपनों की संख्या और परिधि बहुत विस्तृत है। वैसे भी लेखक के लिए आप पर भाव तो रहता ही नहीं है। अपने आसपास बिखरे जगत का सुख-दु:ख उसी का सुख-दु:ख हो जाता है। और शायद इसीलिये मेरी अधिकांश कहानियां "मैं” के साथ शुरू होती हैं।"
मालती जोशी का पता है स्नेहबंध, ५०-दीपक सोसाइटी, चूना भट्टी- कोलार रोड, भोपाल
- रचनाएँ :-
कहनी- संग्रह:-1- मध्यांतर-1977, 2- पटाक्षेप-1978, 3- पराजय-1979, 4- एक घर सपनों का-1985, 5- विश्वास गाथा, 6- शापित शैशव तथा अन्य कहानियाँ-1996, 7- पिया पीर न जानी-1999, 8- औरत एक रात है-2001, 9- रहिमन धागा प्रेम का, 10- परख, 11- वो तेरा घर ये मेरा घर, 12- मिलियन डॉलर नोट तथा अन्य कहानियाँ, 13- ऑनर किलिंग और अन्य कहानियाँ, 14- स्नेह बंध तथा अन्य कहानियाँ