सुप्रीम कोर्टने कहा- बिना सहमति संबंधों को माना दुष्कर्म तो नष्ट होगी विवाह संस्था
■ केन्द्र मैरिटल रेप को अपराध बनाने के खिलाफ
मन्नू भंडारी की कहानी
पापा का कार्ड आया है चाचा जी के नाम। फैसले की तारीख 16 अप्रैल पड़ी है और इस बार निश्चित रूप से फैसला हो जाएगा, पहले की तरह स्थगित नहीं होगा। यदि छुट्टी मिल सके और असुविधा न हो तो दो दिन के लिए आ जाना, मेरे और मुन्नू के लिए एक लाइन भी नहीं लिखी थी। न प्यार न आने के लिए कुछ। पूरे साल में पापा का यह पहला कार्ड था जैसे उन्हें मालूम ही नहीं कि हम भी यहां हैं। क्या पापा ने अपने को इतना बदल लिया है, उन्होंने क्या बदल दिया है शायद समय ने बदल दिया है उन्हें ही क्या सब को बदल दिया है मैं क्या कम बदल गई हूँ, मुन्नू क्या कम बदल गया है। पता नहीं अम्मा की क्या हालत होगी इन पांच सालों में क्या कुछ नहीं बदल गया, क्या पापा सचमुच छूट जाएंगे। पिछली बार जब फैसला हुआ था तब दादी, बाबा, चाचा सब आ गए थे, सब लोग कचहरी पर गए पर हमें नहीं ले गए, मुन्नू को छोड़ जाते, वो सचमुच बच्चा था पर मैं तो बड़ी थी। नवीं का इम्तेहान दे चुकी थी पापा के केस की सारी बातें मुझे पता थी। फिर भी मुझे नहीं ले गए। मैं और मुन्नू सांस रोक कर सबके लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं खुद बहुत घबरा रही थी। पर मुन्नू को बराबर समझाती जा रही थी और कोई चाहे मुझे बड़ा न समझे पर वह तो समझता ही था। 12 बजे दादी और अम्मा ने रोते रोते घर में प्रवेश किया। बाबा कुर्सी पर बैठकर हथेलियों में मुंह छिपा कर फूट फूट कर रोने लगे। हे भगवान तेरे राज में इतना अंधेरा, मेरे निर्दोष बेटे को 2 साल की सजा। सब को रोते देख कर हम दोनों भी खूब रोए। पापा को घर नहीं आने दिया, वहीं से जेल ले गए। मैं दो दिन स्कूल नहीं गई। जब गई तो मेरी सभी सहेलियां हमदर्दी दिखाने लगीं। और वे हमदर्दी बिलकुल नहीं थी। हमदर्दी क्या ऐसे दिखाई जाती है। हाय-हाय बेचारी के पिता को जेल हो गई आपस में दबी-दबी सी जुबान में कहती बड़े लोग भी चोरी करते हैं, तभी ठाठ थे आशा जी के। मेरा जी होता चीख-चीख कर सबसे कहूं पापा ने कुछ नहीं किया, बस पापा के ग्रह बिगड़े हुए हैं। ग्रह जब बिगड़ जाते हैं तो क्या नहीं हो जाता। राम चन्द्र जी ने कौन सी चोरी की थी फिर भी 14 साल का वनवास काटा या नहीं। पांडवों ने क्या किया था फिर भी अज्ञातवास किया कि नहीं। जब राजा का ग्रह बिगड़ता है तो राजा को भी सब कुछ भोगना पड़ता है। इतनी सी बात ये लोग क्यों नहीं समझते खैर कांत मामा इंगलैंड से लौटे तो घर आये थे। कितना बिगड़े थे पापा और चाचा जी पर, कि ये सब हो कैसे गया। आज के जमाने में तो गुनाहगार अपने को साफ बचा ले जाते हैं। लाखों हजम करके मूंछों पर ताव देते घूमते हैं। फाइल की फाइल गायब हो जाती हैं। और एक ये हैं बिना गडबड़ किये जेल भोग रहे हैं। उस समय कांत मामा का व्यवहार मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता। पर कुछ कह भी तो नहीं सकता था कोई। वे हाईकोर्ट की अपील मंजूर करवाने के लिए भाग दोड़ कर रहे थे। इंग्लैंड से लौटकर कांत मामा अपने को बहुत समझने लगे थे। वे शायद बहुत कुछ हो कर आये थे। उन्होंने सचमुच अपील मंजूर करवा दिया। 25 दिनों बाद पापा छूट कर आये। मैं सोच रही थी उनके आते ही मैं और मुन्नू उनके गले से लिपट जाएंगे। कितना प्यार करेंगे पापा हमें, 25 दिनों से घर में मनहूसियत छाई हुई थी। वे दूर हो जाएगी, हमारे अच्छे दिन लौट आएंगे। सब लोगों के आ जाने से और पापा के चले जाने से, हमें तो कोई पूछता ही नहीं था। पहले घर में हम ही हम थे। खाना बनाया जाता हमारी इच्छा से। कहीं बाहर जाते तो हमारी इच्छा से। एकाएक जैसे हम कुछ नहीं रहे। मैं फिर भी कुछ समझती थी पर मुन्नू कुछ नहीं समझता, किसी भी चीज की जिद कर बैठता। मैं उसे समझाती... भैया अभी हमारे बुरे ग्रह आये हुए हैं, किसी भी चीज की जिद नहीं करते पर वह ग्रह व्रह कुछ नहीं मानता। और रोए ही चला जाता, सोचा था हमारे आंसू पोछने वाले और हमारी हर जिद पूरी करने वाले पापा आ जाएंगे, तो हमारे सारे दुख दूर हो जाएंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पापा मामा के साथ तांगे से आये थे। सभी दरवाजे पर खड़े थे। पापा उतरे, बात करना तो दूर, बिना किसी की ओर देखे नीची नजरें किए ऊपर चले गए। सब लोग सकते में आ गए । कैसे हो गए हैं पापा। किसी की हिम्मत ही नहीं हुई कि ऊपर जाएं। आखिर दादी ने अम्मा को भेजा। अम्मा थोड़ी देर में ही लोट आईं। दरवाजा ही नहीं खोलते। बहुत खटखटाया तो कहा चली जाओ मुझे अभी परेशान मत करो। यूं घर वालों के साथ रोई मैं रोज थी पर उस दिन पहली बार मेरा मन रोया था। अपनी पूरी समझ के साथ रोया था। क्या हो गया मेरे पापा को। 25 दिनों बाद घर में घुसे और प्यार करना तो दूर रहा हमारी ओर देखा तक नहीं। बार बार मन कहने लगा कि ये हमारे पापा नहीं हैं, वे ऐसे हो ही नहीं सकते। जेल वालों ने उन्हें बदल दिया। एक अजीब सा भय मन में समाने लगा कि वे क्या अब हमें कभी प्यार नहीं करेंगे। और सचमुच उसके बाद मैंने कभी उनका प्यार नहीं पाया आज तक नहीं। इस कार्ड में क्या वे हमारे लिए एक पंक्ति भी नहीं लिख सकते थे। शायद वे अब किसी से मोह नहीं रखना चाहते। कहीं फिर सजा हो गई तो। शाम को सब लोग ऊपर गए दरवाजा तो खोला पापा ने पर बात किसी से नहीं की थी। तकिये में मुंह गड़ा कर पड़े रहे। मुझे लग रहा था जैसे वे रो रहे हैं। पर हमें तुंरत नीचे भेज दिया गया था। कितना-कितना गुस्सा आया था उस समय। पापा पर पहला हक मेरा है और वे सारी दुनिया में मुझ से ही सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। मैं मानने लगी थी ये सब लोग जल्दी से जल्दी अलीगढ़ चले जाए तो अच्छा हो। तभी शायद पापा हमसे पहले की तरह प्यार करेंगे। सबके सामने शायद उन्हें शरम आती है। शरम की बात तो है ही, स्कूल में मुझे क्या कम शरम आती थी। दूसरे दिन मामा जी और चाचा जी चले भी गए। दादी और बाबा तो घर के ही हैं। पर पापा फिर भी नहीं उतरे उस रात अम्मा को सोने के लिए ऊपर भेजा वे सबेरे उठ कर आईं तो कहा अम्मा जी मुन्नू को आप गांव लेते जाइए, वहां के स्कूल में डाल दीजिए। यहां तो फीस जुटाना भी भारी पड़ेगा। आशा का तो इस साल बोर्ड है वरना उसे भी उमेश भैया के साथ भेजे देते। नीचे का घर अब खाली कर देंगे। फिर पता नहीं क्या क्या बातें हुई उन में। फिर दोनों खूब रोईं मैं किसी को भी रोते देखती हूँ तो बिना कारण जाने ही रोने लगती हूँ। फिर उस समय तो रोने का बहुत बड़ा कारण भी है। मुन्नू चला जाएगा वह गांव में, वहां का स्कूल भी कोई स्कूल है। यहाँ इतने अच्छे स्कूल में वह पढ़ा। पापा वैसे चाहे सारा दिन चुपचाप पड़े रहें पर इस मामले में वे कभी चुप नहीं रहेंगे। पर पापा कुछ नहीं बोले। शायद पापा अम्मा ने साथ बैठ कर ही सब तय किया था। रो-धो कर मुन्नू भी चला गया। हाँ जाते समय उसे सीने से लागा कर बहुत प्यार किया था। मैं पास ही खड़ी थी। उनके आंसू टपक रहे थे। मेरा बड़ा मन कर रहा था उनके दुःख को दूर करने के लिए। नहीं उनका प्यार पाने के लिए। मुन्नू दूर जा कर भी पापा के कितने पास हो गया, मैं पास रह कर भी शायद हमेशा दूर ही रहूंगी। पापा छोड़ने नीचे भी नहीं आए। कोई स्टेशन भी नहीं गया। कोई महीने भर बाद फिर हमारा घर रह गया था उसमें से भी मुन्नू चला गया था। मुन्नू ही क्यों, सप्ताह बीतते न बीतते सारा सामान भी चला गया। नीचे का मकान खाली कर दिया। पकाना- खाना- सोना बरसाती में। पास की छोटी सी कोठरी साफ करके मुझे पढ़ने के लिए मिली। पापा अब कुछ-कुछ बोलने लगे थे। पर पहले वाले पप्पा वे बिलकुल नहीं रहे थे। बस सारा दिन वे चुपचाप लेटे रहते। या कुछ पढ़ते रहते। कभी-कभी गोदी में तकिया रख कर कुछ लिखते भी। मेरा बड़ा मन होता कि देखूं वे क्या लिखते हैं। पर कभी हिम्मत ही नहीं हुई। कितनी ही बार पढ़ा था कि दुःख में हिम्मत रखने वाले ही सच्चे वीर होते हैं। हंसते-हंसते जो सारे दुःखों को झेल जाय वही सच्चा पुरुष है। मेरा मन होता पापा को ये बात समझाऊं पर क्या पापा ये नहीं जानते। फिर इस तरह तो मुंह छुपा कर तो वो पड़ा रहे, जिसने सचमुच ही चोरी की हो। पापा को तो बाहर निकलना चाहिए। घूमना फिरना चाहिए। इस तरह रह कर तो वे सब के बीच खुद को अपराधी ही साबित कर रहे हैं। पर उन्हें कैसे समझाती। अपनी कोठरी में और कोई कष्ट नहीं था पर भयंकर गर्मी के दिन और पंखा नहीं था। रात जैसे-तैसे छत पर कट जाती पर दोपहर में तो छत पर बने ये कमरे भट्टी की तरह जलते थे। छुट्टियों के दिन बिताये नहीं बीत रहे थे। अपनी किसी सहेली के यहां जाने की इच्छा नहीं होती। पड़ोस तक में जाना छोड़ रखा था। दुःख में कोई साथी नहीं होता। बस एक गाँठ बांध रखी थी कि जब तक ये बुरे दिन ये बुरे ग्रह टल नहीं जाते तब तक सभी कुछ चुपचाप सहन करना है। जुलाई में बाबा की चिट्ठी आई मुन्नू को छठवें में भर्ती करवा दिया है और वो खुश हैं। हम सब ने भी मान लिया था कि वह खुश ही होगा। ऐसा मान लेने में ही हम सब को खुशी थी। साथ ही बाबा ने यह भी लिखा था कि एक दुकान में उन्होंने हिसाब लिखने का काम शुरू कर दिया है , 25 रुपये मिलेंगे। जिन्हें वे पापा के पास भेज देगें। 50 उमेश चाचा जी भेजेंगे। मेरे सामने बाबा का पूरा शरीर, झुकी कमर औऱ धुंध भरी आँखें घूम आईं। इस बुढ़ापे में वे अब फिर से नौकरी करेंगे। अम्मा ने बताया कि इन 75 रुपयों में ही घर चलाना है। मैंने स्कूल बस छोड़ दी तीन मील पैदल ही जाती थी। धूप हो या बारिश चेहरे पर शिकन नहीं लाती थी। कभी-कभी सोचती पापा को सस्पेंड हुए दो साल तीन महीने हुए, इतने दिनों में आखिर कितना खर्च हुआ कि बैंक का सारा रुपया निकल गया, अम्मा के सारे गहने बिक गए और भी जाने क्या-क्या चला गया। वकील लोग शायद बहुत लुटेरे होते हैं। कभी सोचती इससे तो पापा सचमुच आफिस का रुपया मार लेते तो अच्छा होता। कम से कम मुन्नू को तो अपने पास रख सकते और एक पंखा भी रख लेते। इस उमस में तो चमड़ी जैसे उबल जाती है। इमानदारी करके ही आखिर कौन सा सुख मिल रहा है। सुनवाई की पहली तारीख ही छह महीने बाद की पड़ी थी। कांत मामा ने कोशिश तो बहुत की थी कि जल्दी-जल्दी सारी सुवाई हो जाए और फैसला हो जाए। पर कानून कांत मामा की इच्छा से नहीं अपनी रफ्तार से चलता है। वकीलों का सारा खर्च मामा ही कर रहे हैं। जरूर मामी से छिपा कर रहें होगें। वरना वो एक पैसा भी खर्च न करने दे। पहली सुनवाई बहुत अच्छी हुई थी। सर्दी में ठिठुरते हुए जब हमने ये खबर सुनी थी तो गर्मी की एक लहर ऊपर से नीचे तक दौड़ गई थी। घर की हालत बद से बदतर होती जा रही थी, खास कर अम्मा की। मुझे तभी लगता था कोई ऐसी बीमारी इन्हें लग गई है जो भीतर ही भीतर इन्हें खाए जा रही है। हाइजीन में रोग और उसके लक्षण पढ़ रखे थे। मुझे अम्मा के सारे लक्षण टीबी के लगते। सर्दी में जो ठंड खा गईं तो चार महीने तक खांसती ही रहीं। बाबा की चिट्ठी आई बड़ी बेबसी में उन्होंने लिखा था कि हिसाब में जरा भूल हुई तो काम चला गया। अब तो पचास रुपये की पेंशन में पंद्रह रुपये ही भेज सकूंगा। हिम्मत रखना बेटा बुरे दिन आते हैं तो सब तरफ से आते हैं पर ये दिन फिरेंगे जरूर, भगवान के घर देर हो सकती है पर अंधेर नहीं। दूसरी सुनवाई अप्रैल में हुई, तारीखें जल्दी मिलतीं ही नहीं थीं। पापा को पूरे साल हो गया था अभी दो सुनवाई और बाकी थे। इतने- इतने दिनों बाद यदि सुनवाई हुई तो एक साल और लग जाएंगे। मेरा मन कांप जाता था। लगता था अब ऐसे दिन नहीं काटे जाते थे। मुन्नू गाँव में, पापा बरसाती में, मैं कोठरी में, दादी खाट में। कैसे मैंने मैट्रिक का इम्तेहान दिया मैं ही जानती हूँ। फिर भी सेकंड डिविजन से पास हो गई। कोई खुशी मनाने वाला नहीं था। सब के मन ऐसे भर चुके थे कि न खुशी होती थी न रंज। जुलाई में नई समस्या आई। गाँव में तो केवल मिडिल स्कूल ही था। मुन्नू का क्या होगा, मेरा क्या होगा ? यहां कॉलेज में जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। पन्द्रह रुपये में पढ़ाना तो दूर साथ रखकर खिलाना भी मुश्किल था। बाबा ने मुन्नू को सीधे उमेश चाचा के पास भेज दिया और खबर कर दी। यहां की स्थिति वे जानते थे। पापा पत्र पढ़ कर सिहर गए। अम्मा बहुत रोई मैं छोटे को बेपढ़ा ही रख लेती, वहां क्यों भेज दिया, एक बार उसे मिला तो देते। नीला का स्वभाव कौन नहीं जानता ? मेरा बच्चा सहम-सहम कर मर जाएगा। मैं सोचती हूँ आशा को भी वहीं भेज दूं कॉलेज में भर्ती हो जाएगी। मैं समझ नहीं पायी कि अम्मा व्यंग्य कर रहीं थीं। अगले वाक्य ने सभी बातें साफ कर दी। नीला का स्वभाव तो तुम जानते हो आशा मुन्नू के पास रहेगी तो उसे तसल्ली तो रहेगी कि सोने को एक गोद तो रहेगी और ऐसा कह कर अम्मा फूट फूट कर रोने लगीं। उमेश भैया को लिख देना जो भी वे हम पर खर्च करें, हम पर कर्ज समझें। उनका पाई-पाई चुका दूंगी, भगवान हम पर रहम करें कभी हमारे दिन भी बदलेंगे ही। नहीं तो अपने को बेच कर कर्ज अदा कर दूंगी। पर मेरे बच्चों पर रहम करें। वे दुखियारे यूं ही अनाथ हो रहे हैं। थोड़ा प्यार उन्हें भी दें, थोड़ा नीला को भी समझा दें। कुछ दिनों बाद मैं उमेश चाचा के पास इलाहाबाद आ गई। मुन्नू मुझे देखते ही लिपट कर रो पड़ा था। मुझे भी रोना आ गया। चाची ने कुछ कहा जरूर था पर अपने ही रोने में हमने सुना नहीं। मुन्नू को गले लगा कर मुझे कैसा लग रहा था मैं नहीं बता सकती। इतना जरूर लगा था कि उसे सचमुच किसी और की जरूरत थी, किसी सहारे की। मैं चाची से बातें कर रही थी उन्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा था। पर मैं ही कौन अपनी मर्जी से आई हूँ। मुन्नू का रंग काफी सांवला पड़ गया था और चेहरा मुरझा गया था। आँखें बड़ी सहमी-सहमी लग रहीं थीं। लगा जैसे बहुत सहमा-सहमा रहता होगा। वहां घर में कितना उधम करता था इतना सा बच्चा। कैसे उसने अपने को बदला होगा, दबाया होगा। मैंने देखा उसका काम था सालभर के बिट्टू को खिलाना, सारा दिन गोद में टांगे-टांगे फिरना। कब वह पढ़ता होगा, कब होमवर्क करता होगा ?
रात में सोने जब मेरे पास आया तो धीरे से कान में कहा दीदी मुझे कल बुढ़िया के बाल खिलाना, टिल्लू और पप्पी रोज खाते हैं, चाची उनको पैसे देती हैं। कहती है छिप कर खा लिया करो पर वे मेरे सामने ही खाते हैं। एक दिन टिल्लू मुझे चिढ़ाते हुए खा रहा था तो मैंने उसके बाल छीन लिए उसने शिकायत कर दी तो चाची ने मुझे बहुत मारा, चाची बहुत जोर से मारती हैं और वह सिसकने लगा। मैंने उसे प्यार किया पर मेरा मन भीतर तक सिसक पड़ा। हम बड़े हैं, हम सब समझते हैं और सह सकते हैं पर ये बेचारा कैसे समझे, समझ तो गया ही होगा, पर सहे कैसे ?
पहली रात ही मैंने संकल्प लिया कि मैं कॉलेज नहीं जाऊंगी। घर का सारा काम करूंगी, जिससे चाची को पूरा आराम मिले। चाची कुछ भी कहेंगी तो चूं तक नहीं करूंगी। फिर जब वह प्रसन्न रहेंगी तो मुन्नू सुरक्षित रहेगा। मुन्नू को रात में बैठकर पढ़ाया करूंगी। मैं चाची से भी पहले उठकर चाय बना देती। फिर जल्दी से टिल्लू और पप्पी को तैयार कर देती। फिर नाश्ता देकर तीनों बच्चों को स्कूल भेज देती। नाश्ते की प्लेट देखने चाची जरूर आतीं शायद उनको कुछ वहम रहता कि कहीं मैंने मुन्नू को कुछ ज्यादा या अच्छा तो नहीं खिला दिया। चाचा जी तारीफ करते तुम तो बड़ी होशियार हो गई आशा, इतना काम कर लेती हो। चाची कहती मैं जब इतनी बड़ी थी तो बारह जनों का कुनबा सम्हालती थी। मैं सुन कर चुप रहती । दोनों समय का खाना भी मैंने अपने हिस्से कर रखा था। रात में सोने जाती तो मेरे पैर तपते थे। रात में मुन्नू को अपने पैरों पर खड़ा कर लेती तो इससे पैरों को आराम मिल जाता था, पर मन का क्या करूं।
अम्मा जब कभी गाँव में काम करवाती तो पप्पा डांटते थे, कहते मैं अपनी आशा को डॉक्टर बनाउंगा, उसे विदेश भेजूंगा वो भटियार खाना बनवाकर मेरी बेटी की जिन्दगी खराब करनी है? यही वाक्य हवाओं में तैरता कमरे में घूमता रहता। धीरे-धीरे आदत हो गई तो पैरों का दर्द भी खत्म हो गया। मन भी सुन्न होता चला गया। मैंने अम्मा को नहीं लिखा कि मैं कॉलेज में भरती नहीं हुई। 31 तारीख को चाचा जी ने चाची के हाथ में तनख्वाह रखी तो चाची ने कहा भाई साहब से कह दो अब 50 रुपये नहीं भेज सकते। इस महंगाई के जमाने में दो को पालना ही भारी पड़ रहा है, फिर हमारे भी तो बच्चे हैं, कौन यहां खान गड़ी है। बात ठीक थी पर मेरा मन कांप गया। चाचा जी रुपये नहीं भेजेंगे तो क्या होगा? पन्द्रह रुपये महीने में क्या होगा? इतना तो कमरे का किराया ही चला जाता है। रोती हुई अम्मा और बिसुरते हुए पप्पा मुझे सारी रात दिखाई दिए। मैं भी उनके साथ खूब रोई। अम्मा का कोई खत नहीं आया बहुत दिनों तक उठते बैठते बस यही चिंता थी मुझे। अम्मा ने अब पैसे की क्या व्यवस्था की होगी। सितंबर में कांत मामा का खत आया शारदा की तबीयत खराब थी सो उसे यहां ले आया। यहां उसका इलाज चल रहा है। दिनेश जी ने कमरा बदल लिया है उसका पता है...। किस्मत के अलावा क्या कहूं कि तारीख जल्दी नहीं मिलती। तीसरी तारीख इसी महीने के आखिर में पड़ी है। सुनवाई पर आउंगा, तुम घबराना मत, भगवान सब ठीक करेंगे। गर्मियों तक कुछ न कुछ अवश्य हो जाएगा। तो पापा अकेले रह गए। अम्मा और अम्मा की गोद तो छिन गई। जिसमें वे रो सकते थे। पापा का पता । अलीगढ़ की गली गली मुझे मालूम है। ये तो मजदूरों की बस्ती है अंधेरी सीलन भरी गलियां। पास के गंदे बहते नाले।
पापा का खाना कौन बनाता होगा? उन्होंने तो कभी ऐसे काम नहीं किये। कभी अंगीठी भी जलाते तो अम्मा मना कर देती। तब वे यही कहते शारदा कौन जाने इस बार मैं छूट ही जाउंगा। सजा हो गई तो न जाने क्या-क्या करना पड़ेगा ? अम्मा बीच में ही डांट देतीं ऐसी बात ही क्यों मुंह से निकालते हो, भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। ये वाक्य अम्मा ने पापा से ही सीखा था और मंत्र की तरह गाँठ बांध लिया था। मैं भगवान से मनाती थी हे भगवान सजा भर न हो। पापा की तपस्या का फल मिले, जो कुछ वे सह रहे हैं वो क्या तपस्या से कम है? सीलन भरी अंधेरी कोठरी में सब से मुंह छिपा कर रहना। बच्चे कहीं, पत्नी कहीं, हे भगवान रहम करना उन्हें सजा मत देना।
मुन्नू और टिल्लू अपना रिजल्ट लेकर आए। टिल्लू सब विषय में पास था और मुन्नू एक विषय में फेल होकर प्रमोट हुआ था। टिल्लू को चाचा जी ने प्यार किया। मुन्नू पास खड़ा आंसू भरी आंखों से टुकुर-टुकुर देखता रहा। चाची ने कहा फेल हो गए न, पढ़ने लिखने में मन लगाओ मुन्नू साहेब तब टिल्लू की तरह पास हो पाओगे। सारे दिन बैठे बैठे टसुए बहाने से पास नहीं हुआ जाता। आंख से आंसू गालों पर लुढ़क आए, वह बांह से पोंछते हुए भीतर जाने लगा। तभी टिल्लू ने उसे चिढ़ाया था फेलू राम.. फेलू राम..। इस पर पहली बार अपने पर बस रखना कठिन हो गया था, मन हुआ कि कह दे कि उसे पढ़ने का समय ही कहां मिलता है। सारे दिन तो चिन्टू को खिलाता है, पच्चीस चक्कर तो बाज़ार के करता है। पर चुप रही। रोते-रोते उसने जरूर टिल्लू को जलती आंखों से देखा, लगा उठाकर एक मार ही देगा, पर न ही वह लौटा न ही कुछ बोला। कैसे हो गया है मुन्नू ? इतना सहनशील, चुप रहने का उपदेश मुन्नू को मैं ही देती थी। जब वह चुप रह जाता है तो सबसे ज्यादा कष्ट मुझे ही होता है पर कुछ उपाय भी तो नहीं था। अब तो मुझे लगने लगा था कि जिन्दगीभर हमें अब ऐसे ही रहना है। इसी तरह अब मैं कभी कॉलेज में पढ़ने नहीं जाऊंगी। मुन्नू हर साल एक विषय में फेल होकर प्रमोट हुआ करेगा। अम्मा मामा के यहां रह कर इलाज करवाया करेगी। पापा वैसे ही सीलन भरी बदबूदार कोठरी में अपना खाना खुद बनाया करेंगे। और आज तभी पापा की ये चिट्ठी आई। उनके हाथ की लिखी पहली चिट्ठी। मैंने हजार बार उसे देखा, पढ़ा, छुआ.. जैसे उसे छूकर उनकी हालत का अनुमान हो जाएगा। पापा जी ने हमें बुलाया नहीं, कहने पर चाचा जी हमें ले जाएं पर इस बार जाएंगे जरूर चाहे कुछ भी हो जाए। कांत मामा जी को लिखूं तो वे लेते जाएंगे। सबेरे दस बजे फैसला है हम दोनों कांत मामा जी के साथ आ गए। धरमशाला में हमें छोड़कर माम जी अम्मा को लेने चले गए। पूरी उम्मीद थी कि इस बार जरूर आएंगी पर वे नहीं आईं। मामा ने इतना ही कहा कि उसकी हालत आने जैसी नहीं है। फैसला आ जाए तो तुम लोग वहीं चलना। पता नहीं अम्मा किस हालत में हैं मन कांप उठता है। मामा कुछ छिपा रहे हैं, मैंने भी अम्मा से बहुत कुछ छिपा रखा है। आज कौन किसके बारे में सही बात जानता है। दूसरे को हल्का करने के लिए सब अपने अपने दुःख से भारी हो रहे हैं। पापा आए तो मैं और मुन्नू उनसे लिपट गए। पापा, मामा को भी हम लोग ऐसे ही लग रहे होंगे। कितने-कितने आंसू बह गए हम तीनों के। कांत मामा भी रो पड़े। शाम को दादी – बाबा भी आ गए। रात में मन्नू दादी से पूछ रहा था दादी अब तो हम पापा के साथ ही रहेंगे। आप तो इतनी पूजा करती हो अपने भगवान से कहो न हमारे पापा को छोड़ दें। दादी ने कहा – हां बेटा अब तू पापा के पास ही रहेगा रात दिन भगवान से यही तो कहती हूँ। मन्नू ने कहा - चाची के पास तो मैं कभी नहीं जाऊंगा। टिल्लू अपने को समझता क्या है? पापा के साथ रहूं तो फिर वो आ जाए हर चीज में मैं उसे पछाड़ सकता हूँ। पढ़ने में भी, कुश्ती में भी। मैं तो एक बार क्लास में फर्स्ट भी आया था क्यों दीदी? मेरी आंखें भीग गईं कितने दिनों बाद मुन्नू अपने असली रूप में दिख रहा था। जब टिल्लू ने उसे चिढ़ाया था तो कुछ भी नहीं कहा था, चुपचाप बैठ गया था। शायद जानता था टिल्लू को कुछ भी कहने का अर्थ है चाची की मार। मुझे कितना बुरा लगा था उस दिन कहां चली गई मुन्नू की बालसुलभ ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की भावना? क्या इतनी सी उम्र में सब कुछ सहने के लिए ही बने हैं?
मुन्नू दादी की खाट पर ही सो गया। मुझे बिल्कुल भी नींद नहीं आई। कल फैसला है। हम सब की किस्मत का फैसला। कांत मामा बहुत आश्वस्त थे पर पापा ? पापा के चेहरे पर तो कोई भाव ही नहीं थे। फैसला हो गया। मैं भी गई थी। इस बार किसी ने रोका भी नहीं। वहां खास भीड़ नहीं थी। पापा में भला घर वालों के सिवा किसे दिलचस्पी हो सकती थी। पापा कटघरे में खड़े थे। हम कुर्सियों में बैठे थे। जज साहब के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जज साहब आये तो पापा ने आंखें मूंद लीं। दादी का सिर नीचे था वे मन ही मन प्रार्थना कर रहीं थीं। वे मुन्नू का हाथ दबाए बैठी थीं। मुझे लग रहा था अब और देर होगी तो मेरी सांस ही घुट जाएगी। कानूनी भाषा में जज साहब ने क्या-क्या कहा मुझे कुछ समझ नहीं आया। पर आखिरी वाक्य समझ में आ गया – मुलजिम को रिहा किया जाता है। इतना सुनते ही- मैं मुन्नू का हाथ हवा में उछाल कर चीख पड़ी – मुन्नू पप्पा रिहा हो गए, रिहा हो गए। पर एकाएक ही दादी और बाबा फूट-फूट कर रो पड़े। मैं भय से कांप उठी कहीं मैंने गलत तो नहीं सुन लिया। पिछली बार भी तो ये लोग इसी तरह रोते-रोते घर में घुसे थे। बाबा का वो वाक्य – मैं कहता न था भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। पर पापा को क्या हो गया वे खुश क्यों नहीं हो रहे। उनका भावहीन चेहरा उनकी गढ्ढे में धंसी हुई निस्तेज तिरछी आँखों में खुशी की चमक क्यों नहीं दिखाई देती? वे ऐसी पथराई आँखों से बाबा को देख रहे हैं जैसे उन्हें कोई बात समझ नहीं आ रही है। मैं दौड़ कर पापा से लिपट गई। पापा आप बरी हो गए, सुनते हैं... आपको सजा नहीं हुई.. सजा नहीं हुई पापा आपको..पर पापा फिर भी वैसे ही रहे, मानो उनको विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उनको सजा नहीं हुई है।
कहानी समाप्त...
■ केन्द्र मैरिटल रेप को अपराध बनाने के खिलाफ
■ तमिलनाडु के पूर्व मंत्री सेंथिल बालाजी को जमानत, शीर्ष कोर्ट ने कहा केस पूरा होने में अत्यधिक देरी और जमानत देने की उच्च सीमा एक साथ नहीं चल सकती
● एक राष्ट्र एक छात्र- अपार आई डी योजना का जल्द क्रियान्वयन होगा ● आई डी आजीवन रहेगी और डीजी लॉकर के जरिए आसानी से उपलब्ध होगी ● कक्षा पहली से 12 वीं तक हर विद्यार्थी की बनेगी अपार आई डी ● सबसे पहले 9 वीं से 12 वीं के विद्यार्थियों का बनेगा ● बच्चों की शारीरिक प्रगति और उपलब्धियों की जानकारी रहेगी इसमेंं ● स्कूल शिक्षा विभाग ने जारी किए दिशा निर्देश
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