• 28 Apr, 2025

जो लिखा नहीं जाता

जो लिखा नहीं जाता

हर आदमी अपने इतिहास के साथ अकेला है... बार- बार यही बात ध्यान में आती है। और इसी बात के साथ आती है सुदर्शना ।  उसी ने तो कहा था उस दिन 'चंदर .. ये यादें भी हमें कहीं नहीं पहुंचातीं, ... कुछ ऐसा है मेरे पास जो मैं किसी से नहीं कह सकती.. इसलिए तो इतनी अकेली हूं। 

' मुझसे भी नहीं कह सकती..? मैंने पूछा था। 
' झूठ बोलने से खुश हो सको तो जितना हो बताती जाऊं। लेकिन सच यह है कि कोई भी किसी से सब -कुछ नहीं बता सकता,हर जन के पास कुछ ऐसा है जो कभी कहा नहीं जाता, किसी से नहीं कहा जा सकता... ' कहते -कहते उसकी आंखों में परछाइयां सी  तैर आई थीं और वह खिड़की के बाहर उड़ती धूल के बगूलों को देखती रह गई थी। 
   
-मैं चुप बैठा रह गया था । स्थिति भी बड़ी अजीब थी। सारा घर उदासी की परतों से लिपटा हुआ था। जिस कमरे मे हम बैठे थे, उसी के बगल वाले कमरे में टिके हुए थे सुदर्शना के पति-महेन्द्र।

सुबह चाय पर हम इकट्ठे हुए थे तो महेन्द्र चुप थे। वही क्या सभी चुप थे।  चुप रहकर अपने भावों को छिपा  रखने का मौका भी था। अगर सुदर्शना के पिता के पिता की मृत्यु जैसी दुःखद घटना नहीं हुई होती तो शायद मैं भी नहीं आता और न उनके पति महेन्द्र आते। अजीब बेबसी में लिपटे बैठे हैं हम। हम तीनों जो एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे भीतर ही भीतर एक दूसरे से नफरत करते थे, साथ ही कहीं न कहीं  पर इतने मजबूर थे कि आपस में खुलकर बात भी नहीं कर पाते थे।

इन पांच सालों में, जब से सुदर्शना अपने पति को छोड़कर चली आई थी मैं महेन्द्र से नहीं मिला था। मिलने का सवाल ही नहीं था पर महेन्द्र को हमेशा यही शक रहा कि सुदर्शना का इस तरह चले जाना सिर्फ मेरे कारण हुआ है..

और जब -जब मैं अपने बारे सोचता हूं, तो सोचता हूं कि काश यही हुआ होता, कुछ दिनों की बदनामी ही तो होती , पर सुदर्शना की आंखों की यह अमिट उदासी तो मिट जाती।

उसके पिता की मृत्यु पर जब जब महेन्द्र भी पहुंचा और मैं भी, तो लगा जैसे हम दोनों ही सुदर्शना से कुछ मांगने आए हैं। मौत पर मातमपुर्सी के लिए आना तो जैसे एक बहाना हो। मेरी कोशिश रही थी कि मेरी करुणा का इजहार  कहीं  ज्यादा होकर बनावटी न लगने लगे।  ... इसीलिए जब सुदर्शना के पिता की चिता में आग दी गई तो मैंने अपने आंसु जबरदस्ती रोक लिए थे।

सफेद साड़ी में लिपटी , पीपल वाले चबूतरे पर बैठी, सुदर्शना मुंह में पल्ला दबाए फटी-फटी आंखों से देख रही थी। उसकी आंखों में पानी की परतें सूख गईं थीं और पुतलियों की कालिख धुल गई थी।  बाल बिखरे हुए थे और वह साामने फैले लम्बे श्मशान को देखते हुए भी कहीं नहीं देख रही थी। पीपल में नई -नई कोपलें फूटीं थीं और उनके रेशमी हरे पत्तों की परछाई उस पर पड़ रही थी।... उस पीपल से हरी -हरी आभा बिखर रही थी और सुदर्शना एकदम अकेली उसके नीचे बैठी थी। हम दोनों ही वहां थे, पर शायद एक दूसरे की वजह से कोई भी उसके पास सांत्वना देने नहीं पहुंच पा रहा था।
  
जलती चिता से कुछ दूर सीमेंट की बेंच पर महेन्द्र बैठे थे और कंकड़ों के ढेर के पास मैं बैठा था। महेन्द्र के चेहरे पर आग की लपटों की तमतमाहट थी।
  
लोगों को भी कुछ अजीब लगा था-मृत्यु के इस क्षण में तो महेन्द्र को सुदर्शना के पास रहना चाहिए... आखिर वह उसकी बीवी है।  पांच साल से अलग हैं तो क्या हुआ।  ऐसे मौकों पर तो यह नहीं होना चाहिए।
 
और चाहते हुए भी मैं सुदर्शना के कंधों को पकड़कर सहारे का एक वाक्य नहीं कह सकता था-  'सुदर्शना पिता जी नहीं रहे तो तो क्या हुआ.. मैं तो हूं घबराओ मत। '     
   
मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । चिटक-चिटक कर चिता जलती रही, पांच ब्राह्मणों ने कपाल क्रिया कर दी और अंगारे समेट कर हम लोग वापस चले आए।  रास्तेभर कोई कुछ नहीं बोला। उड़ती धूल के बगूलों को देखते हुए हम सभी लौट आए थे।  

दूसरे दिन फूल बीनने जाने की बात थी तो लोगों ने यही कहा था कि दामाद लड़के के बराबर होता है,वही जाने। सुदर्शना ने हां या ना नहीं की थी, पर खुद नौकर को लेकर फूल बीनने चली गई थी।

तीसरे दिन वहां रुकना मुझे खलने लगा था।... और वही झिझक शायद महेन्द्र को भी थी। सुदर्शना जब बारामदे में कुर्सी डाले हताश -सी बैठी हुई थी, तो मैं यही कहने के लिए पहुंचा हुआ था कि अच्छा सुदर्शना  अब रात की गाड़ी से मैं चला जाऊं.. तभी उधर से महेन्द्र आए थे और उन्हें आता देख मैं चुपचाप मुड़ गया था।

महेन्द्र आए तो सुदर्शना उठकर खड़ी हो गई थी, तब उन्होंने कहा था- सोचता हूं कल सुबह चला जाऊंगा।

'क्यों ऐसी क्या बात है ?  एक दिन बाद चले जाइयेगा।  सुदर्शना ने कहा था, तो एकाएक मुझे धक्का लगा  था। तो सुदर्शना महेन्द्र को रोकना चाह रही है.. हो सकता है कि अब दोनों किसी समझौते पर पहुंच जाएं। शायद यही होगा.. यही होना था।  वह मकान किराए पर उठा कर या बंद करके महेन्द्र के साथ चली जाएगी... और फिर वे साथ में रहने लगेंगे। एक क्षण के लिए लगा कि यह अच्छा ही हो रहा था।  और अब है ही क्या उसके सामने? अकेले पिता थे जिनके सहारे उसने इतना बड़ा कदम उठाया था.. अब तो वह नितांत अकेली है.. और कर भी क्या सकती है?                                                    

और उसी वक्त अपने ठहरने का कोई भी औचित्य न पाकर मैने बहुत संभलते -संभलते कहा था-सुदर्शना मैं रात की गाड़ी से जाना चाहता हूं। 
-  उसने कहा था -क्यों और एकाध दिन नहीं रुक सकते? 

-उसके यह कहने ने मुझे और भी संकट में डाल दिया था। सोचा था कि दुःख की छाया तले यह किस भंवर जाल में फंसी है सुदर्शना? क्या वह अब बिलकुल टूट गई है भीतर से ? और किसी एक को इस क्षण थाम लेना चाहती है? 

- हम दोनों ही रुके रहे .. एक दूसरे से अलग -थलग और कटे हुए...। 

- और उस घर में हम तीनों ही पुरानी यादों से जुड़े हुए थे। इसलिए वहां रुकना और भी भारी पड़ता जा रहा था। यही घर तो था जहां मैं सुदर्शना के साथ घंटो बिताया करता था। उसकी एक -एक दीवार हमारे प्रथम प्यार की साक्षी है। ... उस दीवार का एक टुकड़ा अब भी वही है जिससे पीठ टिकाए सुदर्शना खड़ी थी और मैंने दोनों बाँहों के घेरे में ले लिया था.... पहली बार। मैंने दीवार पर हाथ रख दिए थे तब सुदर्शना ने शरमाते हुए कहा था-ये बाहें ऐसे ही रहेंगी न।  यह दायरा यों ही बना रहेगा हमेशा ... क्यों ।  और मैं खड़ा मुस्कुराता रहा था। 

- फिर उसी घर में धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया था। एक दिन महेन्द्र दिखाई पड़े थे और तब से सब कुछ बदलने लगा था। घर वाले भी दूसरी तरह पेश आने लगे थे और तब वहां आते-जाते मैं अपमानित महसूस करने लगा था... अब तो उन बातों को सोचकर हंसी आती है। लेकिन इसके बावजूद उस चुभन  को आज भी नहीं भूल पाता। 

- रास्ते बदल गए थे और लगा था कि हम और सुदर्शना , दोनों एक दूसरे को भूल ही गए हों। यही सोच लिया था कि शायद उस वक्त का वह संबंध एक बचपना था... दोनों ने एक-दूसरे को समझा लिया था। 

- सुदर्शना अपने पति के साथ बहुत खुश थी। और जब पहली बार सुदर्शना और महेन्द्र मुझे मिले थे , तो सुदर्शना  की आंखों में पहली पहचान की धुंधली सी तस्वीर उभरी थी। पर महेन्द्र के चेहरे पर जीत -ही-जीत थी। एक हर्ष था ...और तब मैने अपने आप को और भी पिटा हुआ महसूस किया था।

आपकी बातें कभी कभी हमारे घर में होती रहती हैं... महेन्द्र ने हाथ मिलाने के बाद कहा था, वैसे तो हमें अपनी बातों से फुर्सत नहीं मिलती , हम दोनों ही बहुत बातूनी हैं.. कह कर वह हंस दिया था। मैं तब सब्र करके बात को पी गया था। पर आंखों ही आंखों में मैंने सुदर्शना से पूछना चाहा था -अब मेरा यह अपमान क्यों किया जा रहा है? अपने पति की बात का व्यंग्य समझ रही हो न? सुदर्शना ने महेन्द्र की बात के डंक को पहचाना था और नासमझी में इसी बात के घाव को और गहरा कर दिया था- आप की अच्छी बात ही हम करते हैं।

-मैं समझा नहीं कि अच्छी बातें क्या होती हैं?बेहद कठिनाई से मुस्कराते हुए मैंने पूछा था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला था।  सुदर्शना और महेन्द्र कहीं और जाने की जल्दी में चले गए थे। 

-तकलीफ तो हुई थी मुझे पर कही यह भी भला ही लगा था कि दोनों बहुत खुश हैं...

- फिर बहुत सी बातें सुनाई पड़ती थीं... उन दोनों की सफलताओं की यह कि बहुत खूबसूरत घर बसा लिया है उन्होंने, कार खरीद ली है और तीन-तीन नौकर रख लिये हैं। सब आराम मुहैया कर लिया है उन्होंने, घर पर उनके सैर सपाटे की खबरें आती थीं, लंबे खतों में  उन जगहों के वर्णन आते थे, जहां वे घूमकर आते थे। पिक्चर-पोस्टकार्डों पर उनकी लिखी लाइनें आती थीं । डाक पार्सलों में उपहार आते थे...

- उन्हीं दिनों के बाद एक बार सुदर्शना घर आई थी।  पता नहीं क्यों , बिना किसी खबर के आई थी। कुछ देर के लिए मुलाकात हुई थी- और तब वह अपने घुमड़ते दुःख को दबा नहीं पाई थी। धीर से बोली थी - आदमी बहुत ही शक्की होते हैं न ।

- क्यों । 

- पता नहीं किस विश्वास के तहत उस क्षण वह अपनी बातें बता गई थीं ? देखो चंदर  मैं घर में भी किसी से कह नहीं सकती, पर तुम्हें कहते संकोच नहीं होता..  दुःख तो मुझे कुछ नहीं , पर लगता है कि अब आगे नहीं चला जा सकता।

- बात क्या है सुदर्शना?शायद कह देने से तुम्हारे मन का बोझ कम हो जाए । मैंने कहा था। 

- कुछ नहीं, छोटी सी बात थी । एक दिन होटल के कमरे में हम दोनों ही अतीत की याद करने बैठ गए थे। मैं इनके सीने पर सिर रखे थीऔर उनका हाथ मेरे कंधे पर था, तब उन्होंने अपने एक भूले हुए प्यार की दास्तान सुनाई थी। मैंने वे बातें बहुत मजा ले-लेकर सुनी थी और कहीं बहुत भीतर मैं गर्व का अनुभव कर रही थी कि मैने इन्हें जीत लिया। इसके बाद बहुत प्यार से इन्होंने पूछा था-दर्शी...तुमने भी किसी को चाहा होगा।

- उस वक्त मैं झूठ भी बोल सकती थी. पर हम सचाइयों के नजदीक थे और बहुत खुलकर बातें कर रहे थे... सब कुछ स्वीकार कर लेने के मूड में थे और तब मैंने उन्हें तुम्हारे बारे में बताया था... यही कि तुम मुझे बहुत चाहते थे. इसलिए अब तक शादी नहीं की।... सच,उस क्षण मुझे एक अजीब सी तृप्ति मिली थी, यह सोचकर कि तुम अभी तक मुझे याद करते हो। ..

- फिर उन्होंने खोद-खोदकर कुछ और बातें पूछीं थीं और मैं अपनी रौ में सब कुछ बताती गई थी। और कुछ देर बताती चली गई थी। और कुछ देर बाद मैंने महसूस किया था हम दोनों के बीच एक और कोई तीसरा अनजाने ही आ गया है... 

- मुझे पता भी नहीं चला कि कब उसकी बांह मेरी पीठ से खिसक गई और कब मेरा सिर उनके सीने से हटकर तकिये पर आ गया। हम दोनों अनजाने ही एक दूसरे के स्पर्शों की परिधि से बाहर आ गए थे...

- और तभी से वह तीसरा आदमी हम दोनों के बीच बराबर रहता है। ..कहा कि सच पूछो तो वह तुम भी नहीं हो। मेरे लिये यह कभी 

-कभी यह तीसरा आदमी तुम्हारी शक्ल में बदल जाता है और इनके लिए उस तीसरे आदमी का नाम तुम्हारा नाम बन जाता है। और यह परछाई हर वक्त मेरे बीच रहती है....कहते हुए सुदर्शना की आंखें भर आई थीं। 

-यह परछाई तुम्हें बहुत सता रही है..। 

- तकलीफदेय बात यह है कि शायद हम दोनों बहुत अच्छे हैं.. हमें एक दूसरे से कोई शिकायत नहीं है। पर अब हम खुलकर बात नहीं कर पाते । कभी  मैं अपनी भावनाओं में भरकर इनसे बात करती हूं तो इनकी नजरों में एक शक तैरता दिखाई देता है। ... मेरी हर बात हर भावना का अर्थ ही बदल गया है इनके लिए ... समझ में नहीं आता कि ऐसे कैसे चलेगा। 

- इतनी ही बात हुई इस बार सुदर्शना से । मेरा मन आशंकाओं से भर गया था। लगता था टूटने की स्थिति बहुत नजदीक आती  जा रही थी। मेरा मन उदास हो गया था और बहुत संभलकर मैंने कहा था-  मैं तो समझता था कि तुम बहुत खुश हो.. पर आज बड़ी चोट लगी यह सब जानकर..    लेकिन मैं तुम्हें राय भी क्या दे सकता हूं?..सुदर्शना । ऐसी स्थिति में भी नहीं। अपनी -अपनी जिंदगियों का संतुलन हर व्यक्ति अलग -अलग ही खोजता है... अपने बारे में अपने से बेहतर और कोई नहीं जानता । 

- क्या बताऊँ चंदर ?  लगता है कि ज्वार उतर गया.. गीले तटों पर घोंघे और फेन बाकी रह गये हैं.... धीरे-धीरे ये गीले तट सूख-सूखकर चटक जाएंगे।  

-कर तो मैं कुछ नहीं सकता, सुदर्शना, पर अंदर ही अंदर घुटता रहता हूं, तुम्हारे लिए...तुम्हारे लिए तो खैर मेरा उतना भी वजूद नहीं। 

- कैसी बातें करते हो ? वह तो नियति थी जो बहा ले गई.. जिसे मैंने अर्थ देकर अपने को शायद छलना चाहा था, अब यही नियति मुझे छल रही है... सुदर्शना की आंखों में आंसु छलक आए थे और उसने दोनों हथेलियां पसार कर पूछा था..अब तो बता दो.. इनमें और क्या लिखा है?

-इनमें कुछ भी नहीं लिखा सुदर्शना..।

- मैं वापस चली जाऊँ और क्या करूंगी ?

-कहीं नौकरी कर लो तो कुछ मन बदल जाएगा.. । व्यस्त रहोगी.. तो कुछ-कुछ भूल सकोगी। 

-मेरी बात सुनकर वह हंस दी थी.. इतना तो मैं भी जानती हूं  पर यह कोई हल तो नहीं?... सुनो, कुछ और बताओ चंदर..बहुत बेबसी में सुदर्शना ने कहा था.. पर मेरे पास बताने के लिए कुछ था ही नहीं..

- चलते वक्त मैने कहा था..कभी खबर ही दे दिया करो.. सुख दुःख लिख दिया करो..।

- और वह वापस चली गई थी। फिर एक दौर खुशियों का चला था फिर उसके घर पर वैसे ही पत्र आए थे पर उतने लंबे नहीं। लगता था जैसे वह पत्र लिख 
-लिख कर अपनी खोई हुई खुशियों को दोबारा पा लेने की नाकाम कोशिशों में लगी हुई थी। 

- ...एक और ज्वार आ कर गुजर गया था। .. पांच साल पहले वह अपने पिता के पास लौटी थी, तो फिर वापस नहीं गई..। पहले तो लोगों को उसके पिता ने यही बताया कि महेन्द्र किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में एक साल के लिए विदेश जा रहा है। इसलिए सुदर्शना यहीं मेरे पास रहेगी... परजब एक के बाद एक करके चार साल गुजर गए तो लोगों ने कानाफूसी करके स्थिति को स्वीकार लिया था। 

- पर मैं इस नियति को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। एक बार खासतौर से मैं उसी के लिए आया था और घुमा फिरा कर सुदर्शना से उसके चले जाने का कारण पूछा था..।

-तब तक वह शायद बहुत कुछ उबर चुकी थी। धीरे से मुस्करा कर बोली थी कोई खास वजह तो नहीं ..यही समझ लो कि हम दोनो बहुत अच्छे हैं और एक दूसरे को तकलीफ नहीं  दे सकते और हमारी यातना भी ऐसी है कि जिसे साथ -साथ खुलकर भोग भी नहीं सकते...कहते हुए उसने जूड़े के पिन निकाल लिये थे..और एक पिन से लॉन की धरती पर लकीर खींचती रही थी।

- चारों तरफ एक अजीब सी बेबसी व्याप रही थी। शाम का धुंधलका गहराता जा रहा था। पेड़ निस्तब्ध खड़े थे। घर की इमारत में अंधेरा बेतरह भरता जा रहा था। सुदर्शना के पिता जी बरामदे की बिजली जलाकर भीतर चले गए थे। पता नहीं सुदर्शना ने क्या महसूस किया था, धीरे से बोली थी.. अब तो अंधेरा और बढ़ गया है ... आओ बरामदे में चलें।

- नहीं पता कि सुदर्शना ने यह पांच वर्षों का वक्त कैसे गुजारा ? क्योंकि घर में उसके पिता को छोड़कर और कोई था नहीं। पिता  और पुत्री बस यही दो जने थे। 

- और जब उसके पिता की मृत्यु की खबर मिली , तो मैं बहुत परेशान हुआ था..अंदरूनी परेशानी यह थी कि अब सुदर्शना का क्या होगा.. वह कहां जाएगी। शायद वापस महेन्द्र के पास ..। और चारा भी क्या है। चलते वक्त उम्मीद तो नहीं थी कि महेन्द्र आएंगे.. पर पहुंचा तो वह मौजूद थे।  क्रिया-कर्म के वक्त उन दोनों को विकसित होने वाले रिश्तों का एहसास होने लगा था। शायद सुदर्शना ने जान-बूझकर उन्हें कुछ नहीं करने दिया था। शायद चाहती थी कि अपने अकेलेपन का दायरा तोड़कर महेन्द्र ही हाथ बढ़ा दे , इसलिए उस दोपहर जब बगल वाले कमरे में महेन्द्र थे और हम बैठे बात कर रहे थे, तो मैंने उससे कहा था कब जा रही हो तुम । 

- कहां ।

-मैं मुस्कुरा दिया था वह भी मुस्कराई थी.. और फिर उदास होते हुए कहा था यहां और वहां में क्या फर्क है? यहाँ यह दुःख है कि मैं बीत रही हूं वहांयह कि मुझे बीतना पड़ता है। 

- वह सब तो सही है फिर भी कोई राह तो निकालो अपने लिये.. शायद महेन्द्र इसलिए आए हैं। 

-तुम किस लिए आए हो.. उसने एकदम पूछ लिया था।

-कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया था.. वह फिर खिड़की के बाहर उठते हुए धूल के बगूलों को देखने लगी थी।  उसके माथे पर पसीना छलछला आया था और बालों के रोएं चिपक गए थे। उसकी सांस भारी हो गई थी।

- कुछ क्षणों की खामोशी के बाद उसने कहा था-देखो सब-कुछ , सबसे नहीं कहा जा सकता,इतना खुलकर जिंदगी में नहीं रहा जा सकता..कुछ खूबसूरत फरेब शायद जरूरी होते हैं। 

- जितना ही मैं उसे सुलझाने की कोशिश करता था उतना ही वह उलझती जा रही थी..। वह बोझिल दिन भी जैसे-तैसे गुजर गया था। महेन्द्र शाम तक अपने कमरे में ही बंद रहे थे। 

- दूसरी सुबह वह जाने वाले थे। रात को खाना खाने के बाद मैं अपने कमरे में चला गया था। महेन्द्र के कमरे से रात में कुछ आहटें आती रहीं थीं.. कुछ बातों की .. सिसकियों और खामोशियों की ..। वह रात असमंजस की रात थी।

-सुबह सब कुछ शांत था।  मैं बाथरूम से निकला तो सुदर्शना महेन्द्र के कमरे से निकलकर अपने कमरे में जा रही थी। बहुत अलसाई और अस्त व्यस्त सी। और दस बजे की गाड़ी से महेन्द्र के चले जाने के बाद मैं अपने को बहुत ही बेढंगी स्थिति में पा रहा था।  जी में आ रहा था कि सुदर्शना से कहूं .. तुमने अपने दुःख को यह दार्शनिक खोल क्यों पहना रखा है? तुम्हें इसी में रस मिलता है..?क्योंकि मुझे लग रहा था कि सुदर्शना उसी तरह अस्त व्यस्त और दुःखों की मूर्ति बने मेरे सामने आएगी। 

- एक बजे मेरे कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई..। बाहर निकला  तो देखा कि सुदर्शना सजी-संवरी खड़ी है- ठीक वैसे ही जैसे दस साल पहले थी।  लगता था जैसे वक्त लौट आया हो और फिर एक इतिहास वहीं से शुरू होने जा रहा हो।  .. उसी बिन्दु से जहां से उसकी घटनाओं ने मोड़ लिया था। 

- चलो कहीं बाहर खाना खाने चलेंगे .. जल्दी से तैयार हो जाओ..। 

- खाना खाते वक्त हमने वह सब याद किया था जो हमें जोड़ता था। अगर हम साथ होते तो क्या होता। जिंदगी के किन मूल्यों से जुड़े होते..। फिर उसी प्यार की परछाइयां आँखों में उभरी थीं.. और लगा था कि कुछ बन रहा है। 

- दोपहर को वापस आकर जैसे हम भूल गए थे कि कुछ दिनों पहले एक मौत की छाया वहां मंडरा रही थी और सब कुछ एक गहरी करुणा के क्रम में आबध्द था। 

- शाम को जब मैंने बाकी तैयारी शुरू कि तो लग रहा था कि सुदर्शना आकर रोकेगी।, परेशान करेगी पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।  गाड़ी का वक्त होने से पहले वह कमरे में आई थी और बोली थी कि .. मैं स्टेशन छोड़ने चलंगी। 

- रास्ते में बहुत झिझकते हुए मैंने इतना ही कहा था- सुदर्शना अब कुछ सोच लो डियर अपनी बात नहीं करता.. पर ...

- सुनो चंदर ... लगता है अब कुछ होगा नहीं.. मैं अब मन से बड़ी असमर्थ हो गई हूं। कुछ भी स्वीकार करने की सामर्थ्य ही नहीं रही है।

- सब कुछ एक  बार कह डालो सुदर्शना..

- यही तो मुमकिन नहीं है.. । कौन है ऐसा जिसने अपना सब कुछ कह डाला हो..। दस बातें हैं , जो सिर्फ मेरी हैं , तुम्हें उनमें से शायद तीन ही बता पाऊंगी,बाकी नहीं.. कोई और मिलेगा उसे शायद चार बता पाऊँ... किसी और को शायद एक और बता दूं.. पर ऐसा तो कोई नहीं  जिसे सब कुछ बताया जा सके..।  जो बताने से बच जाता है वही बहुत अकेला कर जाता है.. नितांत अकेलापन भर जाता है चारों तरफ..। उसकी यही मजबूरी है..चंदर.. कहते हुए उसने हाथ पकड़ लिया था। उसकी पसीजी हुई उंगलियां थरथरा रहीं थीं.. खत लिखूंगी तुम्हें .. पर और कुछ मत समझना..। 

- मैं चला गया था । वह प्लेटफार्म के अंधेरे में धीरे-धीरे डूब गई थी। 

- कुछ दिन पहले उसका एक लिफाफा आया था- ऊपर लिखा हुआ पता उसी की लिखावट में था और मुहर भी उसी के शहर की थी। लिफाफे के भीतर सिर्फ एक अनलिखा कागज था- जिसमे मोड़ के निशानों के अलावा कुछ भी नहीं था।

(दिल्ली-1963)