ये भी कितनी अजीब बात है न कि - कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने बेहद संजीदा से व्यक्तिगत आत्मीय संबंधों के टूट जाने के तकरीबन एक लम्बे अरसे के बाद... शायद! कभी कहीं किसी मोड़ पर हौले से ये महसूस कर पाते हैं कि - अरे वो लोग तो अब हमारे आसपास हैं ही नहीं जिससे जीस्त की तमाम रौनकें शाया हुआ करती थीं.. जिन्हें हम अपनी मर्ज़ी के मुताबिक अंधेरे -उजाले में नुमाया किया करते थे.... जिन्हें हम जब चाहें तब सही या गलत ठहराया करते थे.. जिन लोगों पर अपना रौब चलता था.. जिनकी गलतियां ढूंढने में हम एक पल की भी देरी नहीं किया करते थे...दरअसल वो हम ही तो ऐसे महान थे- जिन्होंने उनको आश्रय दिया.. स्वतंत्रता दी.. समाज में उनके हिस्से का आत्मविश्वास उन्हें दिलाया... एकांत के क्षणों में प्रेम किया....
और तब ऐसे ही नाशुक्रे लोग पास फटकने की जाने कितनी ही तो बेवजह की कोशिशें किया करते हैं कि - जिससे सब कुछ पहले जैसा सहज और स्वस्थ बन जाए ...
चाहे तो उनके साथी ने समय रहते उन्हें लाख समझाईश ही क्यों न दी हो, कितनी ही दफ़े मिन्नतें की हों ...रास्ता रोक - रोककर कहा हो कि - सुनो आगे खाई है.. पर उस वक़्त अक्सर ऐसे ख़ुदपरस्त बेदिल लोग मुहब्बत से भरी उस रौशन आवाज़ को सुनना ही पसंद नहीं करते और अपना सम्पूर्ण जीवन बर्बाद कर लेते हैं...
काश! कोई उनको समझाये कि -उनकी इतनी कोशिशों के बदले अगर वो समय रहते अपने दरकते रिश्तों की थोड़ी -सी मरम्मत कर लेते.. दो लोगों के बीच अकस्मात उगते उदासीनता को पनपने ही न देते.. दो घड़ी रुककर अपने साथी की परेशानी को ज़रा - सा सुन लेते तो आज उनका हमसफ़र उनके इन प्रयासों के प्रति यूँ तटस्थ तो न हुआ होता....
हम ज़िन्दगी भर सच्चे साथी की तलाश में दर-ब -दर भटका करते हैं और जब हमें उनका साथ नसीब होता है तो हम कभी अपनी गफ़लत में,तो कभी अहंकार में,तो कभी ज़िद्द में,तो कभी अपनी झूठी प्रतिष्ठा की तरजीह पर उसे नज़रअंदाज़ कर अकेले ही दम्भ से आगे बढ़ जाते हैं...वो भी इस यक़ीन के साथ की
हम जब चाहें दोबारा उनके पास लौट सकते हैं...क्योंकि उनका हमारे सिवा दूसरा कोई ठौर ही नहीं..
मन आख़िर एक कांच का एक मर्तबान ही तो है.. जो एक मर्तबा टूट जाए तो जुड़ना नामुमकिन ... आज आपका हमनवां आपसे टूटकर प्यार करता है..आपकी फ़िक्र करता है.. आपकी ख़ुशियों की ख़ातिर जीता है.. मरता है... तो इसका मतलब ये तो नहीं की वह आपकी सारी ज़्यादतियों को भी ता -उम्र बर्दास्त करता चले... बेहिसाब मुहब्बत करने वालों के लिए एक समय के बाद अपने प्रिय से दूरी बनाना उन्हें सबक सीखाना नहीं बल्कि अपने हक़ में कुछ अच्छा सोचते हुए आगे बढ़ना होता है...
हश्र के वक़्त ख़ुदा केवल ज़ालिमों से ही नहीं बल्कि नेक बंदों से भी मुख़ातिब होता है.. और जो अपने ऊपर किये गए अत्याचारों के खिलाफ़ कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाते .. सवाल उसके हिस्से में भी बेशुमार आते हैं जिनका माकूल जवाब उन्हें भी अपनी योग्यता के अनुरूप देना होता है...
किसी के प्यारे से सान्निध्य या मैत्री को पूरी तरह से खो देने के पश्चात...मात्र अपने अहं के तुष्टि हेतु...अपने साथी से वफ़ा, माफ़ी और भूल जाने की उम्मीद करना उनको दोबारा बुरी तरह से सताना ही तो है......क्योंकि शिद्द्त से रिश्ते निभाने वाले ईमानदार लोग जब अपने आत्मीयजनों के अनगिनत बेरुख़ी को लगातार सहते हुए बहुत मजबूरी में विमुख होते हैं तो वो दूर.. वाकेई बहुत ही दूर चले जाते हैं... ऐसे में चाहकर भी वापस लौट आने पर दो लोगों के मध्य वैसा जोड़ निर्मित नहीं हो पाता जिसके बूते उन दो लोगों ने अपनी ख़ुशहाल ज़िन्दगी की परिकल्पना की हो...
हाँ, ये भी सत्य है कि - प्रेम के बिना हमारा समस्त जीवन सूना-सूना सा महसूस होने लगता है... प्रेम के लौटने की राह कोई देखे या न देखे पर एक झरोखा खुला रख छोड़ना चाहिए... किन्तु वही प्रेम जब हमारे जीवन से अलविदा कहता हुआ किसी सिम्त अकेले ही निकल पड़े... तब करने को विशेष कुछ भी नहीं रहता... सब कुछ जैसे किसी मशीन की तरह काम करने को मजबूर होता दिखाई देता है... लेकिन ऐसे रिश्ते जहां सम्मान न हो, अपनापन न हो, आपके प्रति साथी की कोई तवज्जो ही न हो... और आप इस अनचाहे संबंध में इस से तरह जकड़े हुए हों कि - इससे बाहर निकलना उस वक़्त नामुमकिन लगने लगे... क्योंकि तमाम ज़िम्मेदारी मुंह उठाये कातर मुद्रा में आपकी ही तरफ देख रहीं हों..तब ऐसे कठिन समय में मौन और धीरता से काम लेना चाहिए... अपनी अभिरुचियों को समय देना चाहिए.. अपनी फ़िक्र स्वयं करनी चाहिए.. इससे किसी का ध्यान हम बटोर सकें या नहीं मगर ख़ुद को शांत ज़रूर रख सकते हैं.. क्योंकि जब अपने साथ गलत होता है.. अन्याय होता है... ग़लतफहमियां बढ़ती हैं तब धैर्यवान इंसान भी अंदर से तिलमिला उठता है...
कभी-कभी सिर्फ़ तलाक लेकर, ब्लॉक कर, किसी को उपेक्षित कर, किसी को मौक़े पर नीचा दिखाकर,किसी से बात या मेल -मिलाप न करके ही नहीं बल्कि ख़ुदरंग ख़ुदमस्त ख़ुदपसंद बनकर भी ज़हनी तौर पर परेशान करने वाले लोगों से पीछा छुड़ाया जा सकता है..ये हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए उठाया गया निहायत आवश्यक पहल सिद्ध होगा..
चालकियां या ज़्यादतियाँ करने वालों को एक समय के बाद माफ़ करना केवल करुणा का ही पर्याय नहीं... बल्कि स्वयं के विश्वास को बार -बार छलना भी है...
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