• 28 Apr, 2025

दिलकश, दिलफरेब नज़ारे और मासूम लोग

दिलकश, दिलफरेब नज़ारे  और मासूम लोग

जम्मू- कश्मीर- लेह -लद्दाख की वादियां सारी खूबसूरती आँखों में नहीं समा पाती

बदले हुए सियासी हालात के बाद  जिस्मानी आँखों के पार जाकर  हमने देखी पहाड़ी बाशिंदों के दिलों की खुबसूरती, मेहमान नवाजी का वो दिलजीत, नर्म-मुलायम लहजा…और शीरीं जुबान का सैलानियों पर चलता जादू...
को रोना महामारी से उपजी त्रासद घटनाओं और दुश्वारियां ने एक ओर जहां दुनिया के बड़े हिस्से की संवेदना को झकझोर कर रख दिया वही गहन अवसाद से घिरे और लगभग बेपटरी -से हो चुके जीवन को फिर से लय में लाने के लिये लोगों ने आकाश के नीचे जमीन पर उपलब्ध सारे जतन करने शुरू कर दिये। इन्हीं में से एक था देश-दुनिया की सैर पर निकल जाना तो हम भी कुदरत की बेपनाह खूबसूरती से नवाजे गए अपने देश के सबसे लोकप्रिय टूरिस्ट डेस्टिनेशन कश्मीर और लेह-लद्दाख के लिए निकल पड़े। दिलकश नजारों के लिये मशहूर इन जगहों के लिये किसका मन नही मचलता होगा पर पिछले कुछ बरसों से सियासी सरगर्मियों और अमन के दुश्मनों ने जिस तरह से बेगुनाहों की खुरेजी की उसने दिलों में दहशत भर दी थी। इधर कोरोना महामारी ने जिस तरह से  तबाही मचाई है कि अवसाद और सदमे ने लोगों के खुशहाल जीवन से रंगों-रस सोख कर बेनूर सा कर दिया कि जहन में तारी दहशत के सामने कश्मीर के हालात की दुश्वारियां बेमानी सी हो गईं। यहां आकर लगा कि हम एक मुक्कमल नई दुनिया में पहुंच गए हैं तो जाहिर है इस जगह की खूबसूरती को देखने की अलग दृष्टि भी चाहिये थी। तो देखा कि सैलानी यहाँ के मासूम से लोगों के निवालों के जायज जरिये हैं। उनके मासूम बच्चों के चेहरों पर तैरती मुस्कान की एक प्यारी सी उम्मीद है। कुदरत ने जिस तरह से अपनी बेपनाह खूबसूरती से मालामाल किया है कि उसके सिलसिले और दिलफरेब मंजर आंखों में नहीं समाते… यहां के हालात बदलने की केंद्र सरकार की पहल के बाद कुछ छिटपुट घटनाओं का यहाँ कोई असर नहीं दिखा हमें। लाखों सैलानियों से गुलजार धरती का स्वर्ग अनोखी छटा लिए हुए है। सड़के बन रहीं हैं, तो कहीं पर पुल तामीर हो रहे हैं, विकास की नई इबारतें लिखी जा रहीं है। ठंडी वादियों में यहां के बाशिंदों की गर्मजोशी ने, सैलानियों के इस्तकबाल की इनकी पीढ़ियों की रवायत ने हमें तो इनका मुरीद बना दिया...
आइये इन नजारों को देखते हैं। अलग नजर और नजरिया लिए पुणे के डॉ. अतुल वाडेगांवकर के साथ...

दो साल की कोरोना महामारी के बाद हम छह लोग कश्मीर, लेह लद्दाख और  मनाली जाने के लिए निकले।  हवाई जहाज से  30,000 फुट उँचाई पर श्रीनगर की झलक मिलने लगी। बर्फीली पहाड़ियों की चमक, बादलों की घटाएं ये सब देखते वक्त तीन चीजें दिमाग में लगातार घूम रही थी।

   कश्मीर, लेह और लद्दाख का प्राकृतिक सौंदर्य 
  कश्मीर के बारे में सुनी गई  सुरक्षा संबंधी अफवाहें 
  लेह लद्दाख की उँचाई पर सांस की होने वाली संभावित तकलीफ 
इन तीनों विचारों के साथ जब हम श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरे,  तो श्रीनगर हवाई अड्डे के बाहर गुलाब की क्यारियों ने और ड्राइवर की सहृदयता ने हमारा स्वागत किया। श्रीनगर के रास्तों पर की भीड़ और पर्यटकों का उत्साह देखकर सबसे पहले अगर कोई चीज़ ज़ेहन से गायब हुई तो वह थी सुरक्षा संबंधी आशंका।   जिस  तादाद  और शिद्दत से  लोग कश्मीर की वादी में घूम रहे थे, उससे ये तो महसूस हुआ कि  काफी बदलाव हुआ है।   इस सिलसिले में  ड्राइवर से बात करने के बाद पता लगा कि हुर्रियत  द्वारा किए गए कुछ अपप्रचार और कोरोना की मार इन दोनों से, श्रीनगर या कहें कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने जो  जरूरी सीख लेनी थी वह ली है  और उससे उबरकर वापस इसके लिए धरती का स्वर्ग वाला वही सदियों का अजीमो शान रुतबा वापस दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
श्रीनगर में उतरते ही हम पहले चश्मे शाही बाग में गए।  1632 में मुगल गवर्नर अली मर्दन खान द्वारा  बाग  का निर्माण किया गया था। इसे मुगल बादशाह शाहजहाँ ने अपने सबसे बड़े बेटे दारा सिकोह के लिए बनवाया था। यह बाग 108 मीटर लंबा और 38 मीटर चौड़ा है और एक एकड़ भूमि में फैला हुआ है। यह श्रीनगर के तीन मुगल उद्यानों में सबसे छोटा उद्यान है; शालीमार उद्यान सबसे बड़ा और निशांत उद्यान दूसरा सबसे बड़ा उद्यान है। तीनों उद्यान डल झील के दाहिने किनारे पर बनाए गए थे, जिसकी पृष्ठभूमि में ज़बरवान पर्वत (ज़बरवान रेंज) है। 
तीनों बागों में गुलाब और तरह -तरह के फूल बहुत खूबसूरती से लगाए  गए है। सैलानी जहाँ- तहां बिखरी खूबसूरती को कैमरे में कैद करने के लिए मोबाइल के कैमरे से कोशिश कर रहे थे।  तीनों बागों में एक अलग ही सुकून मिला। यहीं  पर आप कश्मीर के ड्रेस पहन कर फोटो खिंचवाकर कश्मीरियत का एक अनुभव कर सकते हैं। वहाँ से हम फिर हाउसबोट की तरफ गए। हाउसबोट में ठहरने का अपना एक अलग अनुभव है।  कश्मीरी कलाकारी से सुसज्जित हाउसबोट और उनकी अतिथि-सत्कार की सहजता और आत्मीयता हमें भा गयी। हाउसबोट पर हमारा स्वागत कश्मीर की काहवा चाय से हुआ। उसके बाद डल झील  की सुंदरता और हाउसबोट के स्टाफ की सहृदयता, रात का सुन्दर खाना, गुलाबी ठंडी के साथ हमने  कश्मीर की पहली रात गुजारी। 
शायद उत्तर भारत में होने और बर्फ़ की वादियों की वजह से सुबह बड़ी जल्दी हो जाती है। सुबह  साढ़े चार बजे के आसपास बेहतरीन उजाला था। हाउसबोट  से डल झील, हरी पहाड़ियां और उसके पीछे चांदी सी चमकती बर्फ़ की पहाड़ियां, इन सब को चाहे जितनी देर भी आप देखें,  आँखों में भरने की कोशिश करें, भर नहीं पाते।  कैमरे की मर्यादा शायद उस वक्त ज्यादा महसूस होती है, जब आंखें जो महसूस कर रही है, दिल को जो चीज छू  रही है पर कैमरा वहाँ तक नहीं पहुँच पाता। 
उसके बाद शिकारा- राइड एक अद्भुत अनुभव था। डल झील में ही  बड़ा  सा बाजार है,   काफी लोगों के घर भी हैं। डल झील पर  सुबह-सुबह माताएं अपने बच्चों को छोटे से शिकारा से डल झील पार कराकर स्कूल ले जाती भी नजर आईं। यह एक अलग ही अनुभव था। आज तक माताओं को पैदल, ऑटो रिक्शा, स्कूल बस या स्कूटर से स्कूल तक पहुंचाने देखते आए हैं  लेकिन शिकारा से बच्चों को स्कूल तक ले जाते देखने का एक अलग अनुभव था।  शिकारा पर अलग अलग बोट (शिकारा ) पर से लोग आकर कश्मीर की विभिन्न वस्तुएँ बेचने के लिए लालायित  थे। वे  आपकी शिकारा  के आसपास रुक कर आपको विभिन्न वस्तुएं दिखाते हैं, आप चाहे तो खरीदे या वैराइटी का आनंद लें। जिससे हम शहरी भाषा में  ‘विंडो शॉपिंग’ कहते हैं, झील पर विंडो शॉपिंग का मजा लें। 
यूपीएससी में आईएस की तैयारी के दौरान बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन में भी एग्जिक्यूटिव इंजीनियर के पद पर नौकरी लगती है यह  पता था और यह भी पता था कि बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन, बॉर्डर पर रोड बनाता है। लेकिन बॉर्डर पर चुनौतीपूर्ण स्थिति में प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर रोड बनाना कितना कठिन हो सकता है ये महसूस हुआ। तब  मन मिलिट्री के प्रति, बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन के प्रति आदर भर आया।  हम शहरों में रहकर इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकते की ये लोग हमारी सुविधा के लिए,  वहां के लोगों के जीवन को सुखद बनाने के लिए,  सैलानियों की सुविधा के लिए और स्थानीय लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कितना बड़ा काम कर रहे हैं।
कठिन जगहों पर रास्ते बनाये जा रहे
एक और बात जो दिल को छू गयी और जो पूरे लेह लद्दाख की घाटियों  में देखने को मिली,  बहुत कठिन जगहों पर रास्तों का काम चल रहा है। अलग-अलग इंजीनियरिंग कंपनियां काम कर रही हैं, बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन के साथ, लेकिन उनके साथ जो हाथ लगे हैं वो मजदूरों है झारखंड के। जहाँ पहाड़ी में ऊंचाइयों पर हमें सांस लेने की तकलीफ होती है, तेज ठंडी  हवा की मार कई बार असहनीय  हो जाती है, ऐसे वातावरण में ये लोग रोड बनाने का काम बॉर्डर आर्गेनाइजेशन के साथ कर रहें हैं। ये जो फिजिकल ट्रांसफॉर्मेशन का काम प्रकृति के साथ संगम बनाकर बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन कर रही है उसमें झारखंड का जो योगदान है वह  शायद कहीं अधोरेखित  नहीं हो पाता। 
हम में से  ज्यादातर लोग जब ऐसे ट्रिप्स की तैयारी करते हैं, तो खुद के लिए क्या ले जाना है उसी पर फोकस करते हैं और वहाँ से क्या लेकर आना है इसके बारे में जानकारी हासिल करते हैं। इधर वहाँ जाने के बाद मुझे ऐसा लगा कि हमने वहाँ के लोगों के लिए क्या ले जाना है इस बारे में भी सोचना चाहिए। मुख्य रूप से झारखंड के उन मज़दूरों के लिए जो कि उन विपरीत परिस्थितियों में अपने घर से हजारों मील परिवार से दूर हमारे लिए अच्छा रोड बने और अच्छी सुविधाएं हों इसके लिए काम करते हैं  हमें भी ये सोचना चाहिए की यहाँ से जाते वक्त हम हमारे झारखंड के मजदूर बंधुओं के लिए क्या ले जा सकते हैं। हमने अपने पास जो कुछ खाने-पीने की चीजें रखी थीं उन्ही में से जब उन्हें गिफ्ट किये तो उनकी आँखों में जो प्यार देखा उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। छोटे-बड़े बदलाव में हाथ की कितनी  महत्ता है ये यहाँ आकर ही महसूस हुआ।  
दिलफरेब पहाड़ियों के रंग
कश्मीर की हरियाली और बर्फ़ की  वादियां जैसे मन मोहित करती है, वहीँ लेह लद्दाख में भी हर २०-२५ किलोमीटर के बाद पहाड़ियों की बदलती रंगत आश्चर्यचकित करती है। कहीं रेती के पहाड़, कहीं मिट्टी के पहाड़, कहीं  चट्टानों के पहाड़, कहीं बर्फ़ के पहाड़ मंत्र मुग्ध करते हैं। बर्फ़ बह जाने से जो पानी आता है उससे रोड कट जाती है। कई बार हम रोड पर चल रहे हैं या रोड के ऊपर से बहते झरने  से जा रहे हैं इस में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। 
लेह -लद्दाख की ट्रिप के दौरान हमें अलग-अलग पास देखने को मिले जिसे हम घाटी भी कहते हैं। श्रीनगर लेह के  रास्ते हमें जोजिला पास, लामयारू गोम्पा और जंस्कार नदी और सिंधु नदी का संगम, मैग्नेटिक हिल जहाँ गाड़ियां गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध चलती है  देखने मिला।  पत्थरसाहिब गुरुद्वारा और कारगिल वॉर मेमोरियल हम देख कर ही लेह पहुंचे।  
पांच पर्यटक ही लेह लद्दाख पहुँच पाते हैं 
कश्मीर और लेह लद्दाख पर्यटन में  एक महत्वपूर्ण फर्क नजर आया  कि अगर सौ पर्यटक  कश्मीर आते हैं तो उनमें से पांच ही लेह लद्दाख पहुँच पाते  हैं। लेह लद्दाख में पर्यटन  व्यवस्थापन ज्यादा संगठित और पारदर्शक लगा। लेह लद्दाख में  विभिन्न  टूरिस्ट स्पॉट थे, वहाँ पर टिकट थे  और  रेट फिक्स थे इसलिए कोई दिक्कत नहीं होती थी वहीं दूसरी कश्मीर में घुड़सवारी या नौकायान के लिए आपको अलग-अलग रेट बताते हैं। आपको मोल-भाव करना होता है। जब हम लेह से जिस्पा कि ओर जा रहे थे तो पूरे कश्मीर से लेकर  लेह लद्दाख की जो जर्नी थी उसके हर पहलू की झलक लेह से जिस्पा  और मनाली रास्ते पर हमें देखने को मिली। जिस्पा से मनाली के रास्ते में चंद्रा और धागा नदी का संगम देखने को मिला जो मिलकर चिनाब नदी बन जाती है। यह संगम जंस्कार नदी और सिंधु नदी का संगम से बिलकुल अलग था।  जहाँ जंस्कार और  सिंधु नदी का संगम  दो अलग-अलग रंग की नदियां अपना अस्तित्व खोकर  एक नई नदी को जन्म देता है। वहीं चंद्रा और भागा नदी का संगम  दो अलग अलग प्रवाह की तीव्रता का मिलन और चिनाब  नदी  के उद्गम दर्शाता दिखता है। इन दोनों संगम को देखकर मन में यह विचार आये बगैर नहीं रहता कि  प्रकृति हमें यह सन्देश दे रही है समर्पण के बगैर नयी पहचान संभव नहीं।  एक और बात जो बड़ी तीव्रता से महसूस हुई वह यह कि प्रकृति की विविधता में कोई प्रतिस्पर्धा न हो कर पूरकता है। अगर हर पर्यटक, प्रकृति का यह सन्देश लेकर जीवन में आगे बढ़ें  तो मानव जीवन अधिक सफल और सार्थक बन सकेगा और शायद बेहतर समाज की रचना हो सके। पहाड़ों में बर्फ के पिघलने से बनी नदियों  का पहाड़ों द्वारा स्थापित  मर्यादाओं को इस्तेमाल कर अपनी दिशा खोजना भी हमें यह बताने और जताने की कोशिश करता नजर आया की अगर हम अपनी मर्यादाओं का इस्तेमाल जीवन को दिशा देने के लिए करते है तो जीवन का अस्तित्व ज्यादा सार्थक और  सफल हो सकता है।  
स्पर्श से सुंदर होते कुदरती नजारे 
हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा में एक बार मसूरी और उसके आस-पास के इलाकों के पर्यटन स्थलों के बारे में जिक्र किया। उसमें उन्होंने लिखा है कि जब विदेशों में जाते हैं तब ऐसा महसूस होता है कि प्रकृति को मनुष्य का स्पर्श मिला और वो ज्यादा सुन्दर हो गई। ठीक इसके विपरीत कई बार हमें हमारे देश में ऐसा महसूस होता है कि मनुष्य जब प्रकृति के करीब आ गया तो प्रकृति ज्यादा अशोभनीय, अनाकर्षक और कुरूप बन गई।  लेकिन लेह लद्दाख की वादियों में जो काम हो रहा है उससे ऐसा महसूस हुआ कि मनुष्य स्पर्श प्रकृति को और सुन्दर सुखद और अनुभूति पूर्ण बना रहा है। सिविल इंजीनियरिंग का चमत्कार  अटल टनेल  इसका सुन्दर उदाहरण है।
मनाली से  लेकर मंडी तक पहाड़ी की ऊंचाइयों पर इसी  प्रकार की टनेल  का काम चल रहा है, जिससे आने वाले समय में  सफ़र का समय कम हो जाएगा और सुन्दरता बढ़ेगी।  इन सब निवेशों का एक उद्देश्य   यह है कि पहाड़ी लोगों की ज़िंदगी मुख्य धारा से जुड़े, पर्यटक पहाड़ी लोगों की प्रगति की में योगदान दे  सके। हम जब कभी इन सब वादियों  में जानते हैं, तो ये सोच कर जाना चाहिए कि हम देश की उन्नति के लिए भी कुछ योगदान दे रहे हैं।  हमें अपने पर्यटन का  आनंद तो लेना ही  है,  लेकिन साथ- साथ वहाँ की  अर्थव्यवस्था मजबूत बनाना है, वहाँ के लोगों को समझना है। 
इस पूरे सफर के दौरान बहुत सारे पर्यटक  अलग- अलग धर्म जाति के, शंकराचार्य के मंदिर में माथा टेकते नजर आए, तो कभी पत्थर साहिब गुरूद्वारे में माथा टेक कर लंगर का प्रसाद, चाय लेते  भी दिखे,  बौद्ध मठ में माथा टेक कर वहाँ की शांति, वहाँ की पूजा पद्धति को आँखों में समाते नज़र आए। सही मायनों में यहां अनेकता में एकता के मायने साफ हो रहे थे।  हर कोई यह महसूस कर रहा था प्रकृति के द्वारा भी हम भगवान तक पहुँच सकते हैं, ईश्वर तक पहुँच सकते हैं, खुदा तक पहुँच सकते हैं। वैसे ही अलग- अलग धर्म के मंदिरों में पूजा घरों जाकर भी शांति और प्यार बांटा जा सकता है।

सैलानियों के लिए सेवा भाव
उसके बाद दूसरे दिन हम पहलगाम गए। यहां घोड़े से करीब डेढ़ घंटे सवारी कर ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी रास्ते से  जब मिनी स्विट्जरलैंड पर पहुंचे, तब कश्मीर का एक दूसरा सुंदर रूप  देखने मिला। इतनी उँचाई पर हरा मैदान, ऊंचे वृक्ष,  हरी पहाड़ियाँ और पीछे चमकीली बर्फ़ की वादियाँ। तेज हवा, रुख बदले तो मौसम बदले ऐसी परिस्थिति थी। कभी धूप, कभी छांव और कभी बारिश इन सब के बीच उतनी उँचाई पर गर्म चाय और गर्म मैग्गी अलग ही सुकून दे गयी।  एक बात जो खास यहां महसूस हुई, वह कश्मीरी लोगों का सैलानियों के प्रति सेवा भाव। घोड़े की सवारी के दौरान भी जो लड़के घोड़े को संभाल रहे थे, वे बड़ी शिद्दत के साथ घोड़े पर बैठे हुए व्यक्तियों को  प्रोत्साहित कर रहे थे, ताकि आप घोड़े पर बैठने से होने वाली घबराहट को भूलकर वादियों में खो जाएँ। श्रीनगर से पहलगाम के रास्ते लगने वाली नदी की खूबसूरती देखते ही बनती थी।  पहाड़ी नदियों के बहने की कलकल और उसकी ठंडक दिल के भीतर तक उत्तर जाती है। दो दिन कश्मीर में बिताने के बाद  हम कार से कारगिल की ओर सोनमर्ग,  जोजिला पास, द्रास घाटी के रास्ते निकले। यह सफ़र  बड़ा रोमांचक था। सोनमर्ग पर भी लोगों का बर्फ़ के साथ खेलना,  बर्फ़ पर गाड़ी चलाना सुखद था। द्रास घाटी बला की खूबसूरत है। इस रास्ते पर हमने जोजिला पास देखा।  लगभग 11,500 फिट की उँचाई पर यह पास है,जहाँ पर बर्फ़ बिखरी हुई थी। इन रास्तों से  गुजरते वक्त समझ आया कि पहाड़ी जिंदगी कितनी कठिन है।  पर्यटन स्थल पर चीजें लगभग सब के लिए आसान सी कर दी जाती है।  इस पूरे रास्ते पर द्रास घाटी  में  लंबी टनेल का काम चल रहा है। मैं पिछले 15 साल से डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन के फील्ड में काम कर रहा हूँ, तो मुझे ऐसा लगता है डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन बहुत चैलेंजिंग है।  लेकिन प्रकृति की गोद में फिजिकल ट्रांसफॉर्मेशन कितना चैलेंजिंग हो सकता है इसका आँखों देखा अनुभव लिया।  इतनी चुनौती पूर्ण स्थिति में वहाँ पर टनेल बनाना, रास्ते का रखरखाव करना बहुत मुश्किल है। 
सेना के लिए सम्मान से भर गया मन

   कश्मीर, लेह और लद्दाख का प्राकृतिक सौंदर्य 
  कश्मीर के बारे में सुनी गई  सुरक्षा संबंधी अफवाहें 
  लेह लद्दाख की उँचाई पर सांस की होने वाली संभावित तकलीफ 
इन तीनों विचारों के साथ जब हम श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरे,  तो श्रीनगर हवाई अड्डे के बाहर गुलाब की क्यारियों ने और ड्राइवर की सहृदयता ने हमारा स्वागत किया। श्रीनगर के रास्तों पर की भीड़ और पर्यटकों का उत्साह देखकर सबसे पहले अगर कोई चीज़ ज़ेहन से गायब हुई तो वह थी सुरक्षा संबंधी आशंका।   जिस  तादाद  और शिद्दत से  लोग कश्मीर की वादी में घूम रहे थे, उससे ये तो महसूस हुआ कि  काफी बदलाव हुआ है।   इस सिलसिले में  ड्राइवर से बात करने के बाद पता लगा कि हुर्रियत  द्वारा किए गए कुछ अपप्रचार और कोरोना की मार इन दोनों से, श्रीनगर या कहें कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने जो  जरूरी सीख लेनी थी वह ली है  और उससे उबरकर वापस इसके लिए धरती का स्वर्ग वाला वही सदियों का अजीमो शान रुतबा वापस दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
श्रीनगर में उतरते ही हम पहले चश्मे शाही बाग में गए।  1632 में मुगल गवर्नर अली मर्दन खान द्वारा  बाग  का निर्माण किया गया था। इसे मुगल बादशाह शाहजहाँ ने अपने सबसे बड़े बेटे दारा सिकोह के लिए बनवाया था। यह बाग 108 मीटर लंबा और 38 मीटर चौड़ा है और एक एकड़ भूमि में फैला हुआ है। यह श्रीनगर के तीन मुगल उद्यानों में सबसे छोटा उद्यान है; शालीमार उद्यान सबसे बड़ा और निशांत उद्यान दूसरा सबसे बड़ा उद्यान है। तीनों उद्यान डल झील के दाहिने किनारे पर बनाए गए थे, जिसकी पृष्ठभूमि में ज़बरवान पर्वत (ज़बरवान रेंज) है। 
तीनों बागों में गुलाब और तरह -तरह के फूल बहुत खूबसूरती से लगाए  गए है। सैलानी जहाँ- तहां बिखरी खूबसूरती को कैमरे में कैद करने के लिए मोबाइल के कैमरे से कोशिश कर रहे थे।  तीनों बागों में एक अलग ही सुकून मिला। यहीं  पर आप कश्मीर के ड्रेस पहन कर फोटो खिंचवाकर कश्मीरियत का एक अनुभव कर सकते हैं। वहाँ से हम फिर हाउसबोट की तरफ गए। हाउसबोट में ठहरने का अपना एक अलग अनुभव है।  कश्मीरी कलाकारी से सुसज्जित हाउसबोट और उनकी अतिथि-सत्कार की सहजता और आत्मीयता हमें भा गयी। हाउसबोट पर हमारा स्वागत कश्मीर की काहवा चाय से हुआ। उसके बाद डल झील  की सुंदरता और हाउसबोट के स्टाफ की सहृदयता, रात का सुन्दर खाना, गुलाबी ठंडी के साथ हमने  कश्मीर की पहली रात गुजारी। 
शायद उत्तर भारत में होने और बर्फ़ की वादियों की वजह से सुबह बड़ी जल्दी हो जाती है। सुबह  साढ़े चार बजे के आसपास बेहतरीन उजाला था। हाउसबोट  से डल झील, हरी पहाड़ियां और उसके पीछे चांदी सी चमकती बर्फ़ की पहाड़ियां, इन सब को चाहे जितनी देर भी आप देखें,  आँखों में भरने की कोशिश करें, भर नहीं पाते।  कैमरे की मर्यादा शायद उस वक्त ज्यादा महसूस होती है, जब आंखें जो महसूस कर रही है, दिल को जो चीज छू  रही है पर कैमरा वहाँ तक नहीं पहुँच पाता। 
उसके बाद शिकारा- राइड एक अद्भुत अनुभव था। डल झील में ही  बड़ा  सा बाजार है,   काफी लोगों के घर भी हैं। डल झील पर  सुबह-सुबह माताएं अपने बच्चों को छोटे से शिकारा से डल झील पार कराकर स्कूल ले जाती भी नजर आईं। यह एक अलग ही अनुभव था। आज तक माताओं को पैदल, ऑटो रिक्शा, स्कूल बस या स्कूटर से स्कूल तक पहुंचाने देखते आए हैं  लेकिन शिकारा से बच्चों को स्कूल तक ले जाते देखने का एक अलग अनुभव था।  शिकारा पर अलग अलग बोट (शिकारा ) पर से लोग आकर कश्मीर की विभिन्न वस्तुएँ बेचने के लिए लालायित  थे। वे  आपकी शिकारा  के आसपास रुक कर आपको विभिन्न वस्तुएं दिखाते हैं, आप चाहे तो खरीदे या वैराइटी का आनंद लें। जिससे हम शहरी भाषा में  ‘विंडो शॉपिंग’ कहते हैं, झील पर विंडो शॉपिंग का मजा लें। 
यूपीएससी में आईएस की तैयारी के दौरान बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन में भी एग्जिक्यूटिव इंजीनियर के पद पर नौकरी लगती है यह  पता था और यह भी पता था कि बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन, बॉर्डर पर रोड बनाता है। लेकिन बॉर्डर पर चुनौतीपूर्ण स्थिति में प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर रोड बनाना कितना कठिन हो सकता है ये महसूस हुआ। तब  मन मिलिट्री के प्रति, बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन के प्रति आदर भर आया।  हम शहरों में रहकर इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकते की ये लोग हमारी सुविधा के लिए,  वहां के लोगों के जीवन को सुखद बनाने के लिए,  सैलानियों की सुविधा के लिए और स्थानीय लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कितना बड़ा काम कर रहे हैं।
कठिन जगहों पर रास्ते बनाये जा रहे
एक और बात जो दिल को छू गयी और जो पूरे लेह लद्दाख की घाटियों  में देखने को मिली,  बहुत कठिन जगहों पर रास्तों का काम चल रहा है। अलग-अलग इंजीनियरिंग कंपनियां काम कर रही हैं, बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन के साथ, लेकिन उनके साथ जो हाथ लगे हैं वो मजदूरों है झारखंड के। जहाँ पहाड़ी में ऊंचाइयों पर हमें सांस लेने की तकलीफ होती है, तेज ठंडी  हवा की मार कई बार असहनीय  हो जाती है, ऐसे वातावरण में ये लोग रोड बनाने का काम बॉर्डर आर्गेनाइजेशन के साथ कर रहें हैं। ये जो फिजिकल ट्रांसफॉर्मेशन का काम प्रकृति के साथ संगम बनाकर बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन कर रही है उसमें झारखंड का जो योगदान है वह  शायद कहीं अधोरेखित  नहीं हो पाता। 
हम में से  ज्यादातर लोग जब ऐसे ट्रिप्स की तैयारी करते हैं, तो खुद के लिए क्या ले जाना है उसी पर फोकस करते हैं और वहाँ से क्या लेकर आना है इसके बारे में जानकारी हासिल करते हैं। इधर वहाँ जाने के बाद मुझे ऐसा लगा कि हमने वहाँ के लोगों के लिए क्या ले जाना है इस बारे में भी सोचना चाहिए। मुख्य रूप से झारखंड के उन मज़दूरों के लिए जो कि उन विपरीत परिस्थितियों में अपने घर से हजारों मील परिवार से दूर हमारे लिए अच्छा रोड बने और अच्छी सुविधाएं हों इसके लिए काम करते हैं  हमें भी ये सोचना चाहिए की यहाँ से जाते वक्त हम हमारे झारखंड के मजदूर बंधुओं के लिए क्या ले जा सकते हैं। हमने अपने पास जो कुछ खाने-पीने की चीजें रखी थीं उन्ही में से जब उन्हें गिफ्ट किये तो उनकी आँखों में जो प्यार देखा उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। छोटे-बड़े बदलाव में हाथ की कितनी  महत्ता है ये यहाँ आकर ही महसूस हुआ।  
दिलफरेब पहाड़ियों के रंग
कश्मीर की हरियाली और बर्फ़ की  वादियां जैसे मन मोहित करती है, वहीँ लेह लद्दाख में भी हर २०-२५ किलोमीटर के बाद पहाड़ियों की बदलती रंगत आश्चर्यचकित करती है। कहीं रेती के पहाड़, कहीं मिट्टी के पहाड़, कहीं  चट्टानों के पहाड़, कहीं बर्फ़ के पहाड़ मंत्र मुग्ध करते हैं। बर्फ़ बह जाने से जो पानी आता है उससे रोड कट जाती है। कई बार हम रोड पर चल रहे हैं या रोड के ऊपर से बहते झरने  से जा रहे हैं इस में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। 
लेह -लद्दाख की ट्रिप के दौरान हमें अलग-अलग पास देखने को मिले जिसे हम घाटी भी कहते हैं। श्रीनगर लेह के  रास्ते हमें जोजिला पास, लामयारू गोम्पा और जंस्कार नदी और सिंधु नदी का संगम, मैग्नेटिक हिल जहाँ गाड़ियां गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध चलती है  देखने मिला।  पत्थरसाहिब गुरुद्वारा और कारगिल वॉर मेमोरियल हम देख कर ही लेह पहुंचे।  
पांच पर्यटक ही लेह लद्दाख पहुँच पाते हैं 
कश्मीर और लेह लद्दाख पर्यटन में  एक महत्वपूर्ण फर्क नजर आया  कि अगर सौ पर्यटक  कश्मीर आते हैं तो उनमें से पांच ही लेह लद्दाख पहुँच पाते  हैं। लेह लद्दाख में पर्यटन  व्यवस्थापन ज्यादा संगठित और पारदर्शक लगा। लेह लद्दाख में  विभिन्न  टूरिस्ट स्पॉट थे, वहाँ पर टिकट थे  और  रेट फिक्स थे इसलिए कोई दिक्कत नहीं होती थी वहीं दूसरी कश्मीर में घुड़सवारी या नौकायान के लिए आपको अलग-अलग रेट बताते हैं। आपको मोल-भाव करना होता है। जब हम लेह से जिस्पा कि ओर जा रहे थे तो पूरे कश्मीर से लेकर  लेह लद्दाख की जो जर्नी थी उसके हर पहलू की झलक लेह से जिस्पा  और मनाली रास्ते पर हमें देखने को मिली। जिस्पा से मनाली के रास्ते में चंद्रा और धागा नदी का संगम देखने को मिला जो मिलकर चिनाब नदी बन जाती है। यह संगम जंस्कार नदी और सिंधु नदी का संगम से बिलकुल अलग था।  जहाँ जंस्कार और  सिंधु नदी का संगम  दो अलग-अलग रंग की नदियां अपना अस्तित्व खोकर  एक नई नदी को जन्म देता है। वहीं चंद्रा और भागा नदी का संगम  दो अलग अलग प्रवाह की तीव्रता का मिलन और चिनाब  नदी  के उद्गम दर्शाता दिखता है। इन दोनों संगम को देखकर मन में यह विचार आये बगैर नहीं रहता कि  प्रकृति हमें यह सन्देश दे रही है समर्पण के बगैर नयी पहचान संभव नहीं।  एक और बात जो बड़ी तीव्रता से महसूस हुई वह यह कि प्रकृति की विविधता में कोई प्रतिस्पर्धा न हो कर पूरकता है। अगर हर पर्यटक, प्रकृति का यह सन्देश लेकर जीवन में आगे बढ़ें  तो मानव जीवन अधिक सफल और सार्थक बन सकेगा और शायद बेहतर समाज की रचना हो सके। पहाड़ों में बर्फ के पिघलने से बनी नदियों  का पहाड़ों द्वारा स्थापित  मर्यादाओं को इस्तेमाल कर अपनी दिशा खोजना भी हमें यह बताने और जताने की कोशिश करता नजर आया की अगर हम अपनी मर्यादाओं का इस्तेमाल जीवन को दिशा देने के लिए करते है तो जीवन का अस्तित्व ज्यादा सार्थक और  सफल हो सकता है।  
स्पर्श से सुंदर होते कुदरती नजारे 
हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा में एक बार मसूरी और उसके आस-पास के इलाकों के पर्यटन स्थलों के बारे में जिक्र किया। उसमें उन्होंने लिखा है कि जब विदेशों में जाते हैं तब ऐसा महसूस होता है कि प्रकृति को मनुष्य का स्पर्श मिला और वो ज्यादा सुन्दर हो गई। ठीक इसके विपरीत कई बार हमें हमारे देश में ऐसा महसूस होता है कि मनुष्य जब प्रकृति के करीब आ गया तो प्रकृति ज्यादा अशोभनीय, अनाकर्षक और कुरूप बन गई।  लेकिन लेह लद्दाख की वादियों में जो काम हो रहा है उससे ऐसा महसूस हुआ कि मनुष्य स्पर्श प्रकृति को और सुन्दर सुखद और अनुभूति पूर्ण बना रहा है। सिविल इंजीनियरिंग का चमत्कार  अटल टनेल  इसका सुन्दर उदाहरण है।
मनाली से  लेकर मंडी तक पहाड़ी की ऊंचाइयों पर इसी  प्रकार की टनेल  का काम चल रहा है, जिससे आने वाले समय में  सफ़र का समय कम हो जाएगा और सुन्दरता बढ़ेगी।  इन सब निवेशों का एक उद्देश्य   यह है कि पहाड़ी लोगों की ज़िंदगी मुख्य धारा से जुड़े, पर्यटक पहाड़ी लोगों की प्रगति की में योगदान दे  सके। हम जब कभी इन सब वादियों  में जानते हैं, तो ये सोच कर जाना चाहिए कि हम देश की उन्नति के लिए भी कुछ योगदान दे रहे हैं।  हमें अपने पर्यटन का  आनंद तो लेना ही  है,  लेकिन साथ- साथ वहाँ की  अर्थव्यवस्था मजबूत बनाना है, वहाँ के लोगों को समझना है। 
इस पूरे सफर के दौरान बहुत सारे पर्यटक  अलग- अलग धर्म जाति के, शंकराचार्य के मंदिर में माथा टेकते नजर आए, तो कभी पत्थर साहिब गुरूद्वारे में माथा टेक कर लंगर का प्रसाद, चाय लेते  भी दिखे,  बौद्ध मठ में माथा टेक कर वहाँ की शांति, वहाँ की पूजा पद्धति को आँखों में समाते नज़र आए। सही मायनों में यहां अनेकता में एकता के मायने साफ हो रहे थे।  हर कोई यह महसूस कर रहा था प्रकृति के द्वारा भी हम भगवान तक पहुँच सकते हैं, ईश्वर तक पहुँच सकते हैं, खुदा तक पहुँच सकते हैं। वैसे ही अलग- अलग धर्म के मंदिरों में पूजा घरों जाकर भी शांति और प्यार बांटा जा सकता है।

लेह का नौ मंजिला किला
लेह में मिट्टी से बना नौ मंजिल किला उस वक्त की सिविल इंजीनियरिंग और मानवी कला के संगम का अहसास दिला गया। लेह से नुब्रा घाटी  में खारदुंगला पास या घाटी की सुंदरता देखते ही बनती थी।  इसी जगह पर दुनिया की सबसे उँचाई पर बनी रोड से गुजरने का अनुभव मिला।  नुब्रा वैली में इतनी उँचाई पर डेज़र्ट ( रेगिस्तान ) भी हो सकता है, बर्फ़ भी हो सकती है और नदी बह सकती है ऐसा कभी सोचा भी न था। एक साथ  प्रकृति कि तीन अलग छटाओं का संगम अद्भुत ही नहीं बल्कि यकीन से परे सा लगता  है। नुब्रा वैली में पहाड़ों के बीच में टेंट छोटे से होटल का जो सुकून मिलता है वह भी शब्द की सीमा के बाहर की बात है। नुब्रा वैली से पैंगॉन्ग लेक का रास्ता नदी के किनारे से होकर जाता है। नदी जहाँ अपनी मर्यादा लांघती है वहाँ पर हमें यह महसूस होता है कि रास्ते खो गए हैं।एक अलग अनुभव मिला ऑफ रोड ड्राइव का। नुब्रा घाटी से पैंगांग के रास्ते खारदुंगला पास ( घाटी),  समुद्र तल से लगभग 18000 फ़ीट की उँचाई पर तेज ठंडी हवा, बर्फ की चादर ओढ़े पर्वतशृंखला देखने से ज्यादा महसूस करने की बात थी। समुद्र तल से लगभग 14000 फ़ीट उँचाई पर झील कल्पनातीत है। पैंगांग झील की शीतलता, समय के साथ बदलती रंग की छटा किसी और ही दुनिया में ले जाता है।