• 28 Apr, 2025

ज़िंदगी से मोहब्बत, मोहब्बतों की जिंदगी

ज़िंदगी से मोहब्बत, मोहब्बतों की जिंदगी

दिनेश चौधरी
दिनेश चौधरी, जबलपुर

देव आनंद ने अपनी आत्मकथा का नाम बहुत सही रखा, "रोमेंसिंग विद लाइफ़"- जिंदगी से रोमांस। रोमांस के मसीहा तो वे रहे ही। हैं भी। आज की पीढ़ी शाहरुख को ऐसा समझती है। यह भी गलत नहीं है। लेकिन आज भी ऐसे करोड़ों लोग मौजूद हैं जो यह मानते हैं कि हिंदुस्तानी सिनेमा में मोहब्बत का पहला मसीहा, असली मसीहा और अभी भी नौजवान मसीहा कोई है तो वो देव आनंद है। ऐसा मानने वालों में सिर्फ बूढ़े ही नहीं, कई नौजवान भी मिल जायेंगे। हो सकता है कि अगले पचास सालों में शाहरुख खान गुम हो जाएँ। मैं नहीं कहता कि उन्हें गुम हो जाना चाहिये। अपनी दुआ है कि वे अधिक से अधिक और नुमाया होते चले जायें। अगले पचास सालों में जब दो-तीन पीढ़ियाँ और आ जायें तो दो-तीन नाम और भी ऐसे आयें जो नौजवानी का ऑइकन बनें। लेकिन मेरा यकीन है कि अगले पचास सालों में भी देव आनंद एक ऑइकन बने रहेंगे। इस यकीन के कारण क्या हैं, यह मैं आपको बताना चाहता हूँ; मगर जरा ठहरकर, क्योंकि ये कुछ दूसरी चीजों से भी जुड़ते हैं।

 
तो जिस आत्मकथा की बात हम कर रहे हैं, रोमेंसिंग विद लाइफ या जिंदगी के साथ रोमांस, वह क्या है? पंडित जवाहर लाल नेहरू अपनी आत्मकथा में जो लिखते हैं, इंडिया को भारतमाता कहते हैं, तो वे साफ करते हैं कि ये इंडिया क्या है और इस इंडिया का प्रतीक भारतमाता किस तरह है। इस देश में रहने वाले जो करोड़ों लोग हैं, यहाँ की जो अवाम है, वही इंडिया है, वही भारतमाता है। यही वो है जिसे सिनेमा में एक गाने में कहा गया, "मेरी आँखों में रहे, कौन जो मुझसे कहे, मैंने दिल तुझको दिया।" यों नफरत की आँधी एक बार और चली थी बीसवीं सदी में, लेकिन काफी सालों बाद तक हिंदुस्तानी सिनेमा ने मोहब्बत की अनुगूँज की तरह दिखाया। लोग कहते हैं हमारे यहाँ विभाजन पर फ़िल्में नहीं बनी। मुझे हँसी आती है इस बात पर। न सिर्फ इस विषय पर कई फिल्में बनी, गाने लिखे गये तरह-तरह के, एक से बढ़कर एक खूबसूरत गीत। और वे गाने खासतौर पर, जिन्हें दुखान्तिका की तरह नहीं लिखा गया बल्कि इस तरह बयान किया गया उनका कि देखो! भूल न जाना कि कैसे इस बंटवारे ने आठ-आठ आँसू रुलाये थे। 
 
देव आनन्द साहब जब कहते हैं, 'रोमेंसिंग विद लाइफ' तो यह रोमांस स्त्रियों के लिये नहीं है। वो अपनी मेहबूबाओं के लिये नहीं है। वो उनकी सिनेमा की नायिकाओं के लिये भी नहीं है। ये सब है मगर बहुत बाद में है। आखिर नायिकाओं से भी रोमांस तो था ही और उन्हीं में से एक उनकी पत्नी भी बनी। मगर सबसे पहला जो रोमांस है वो सिनेमा के साथ है। वह भी दूसरे के सिनेमा से नहीं, सिर्फ अपने सिनेमा से है। प्रेम वो सबको कर सकते हैं, सबको पसन्द कर सकते हैं, सबको चाह सकते हैं, तारीफ भी कर सकते हैं मगर रोमांस अगर किसी से है तो वह सिर्फ अपने सिनेमा से है। अपने सिनेमा में भी अगर रोमांस किसी से है तो सबसे पहले अपने आप से है। खुद से ज्यादा तो वे किसी से रोमांस करते ही नहीं। देव आनंद का मतलब है, देव आंनद की नज़र से देव आनंद को देखना। उन्हें यकीन था कि जो देव आनंद की फिल्में देखने आते हैं, वे देव आनंद को ही देखने आते हैं।
 
देव आनंद को अपने प्रति लोगों की दीवानगी बहुत बेहतर तरीके से पता थी। इसलिए देव आनंद की फिल्मों में सिर्फ देव आनंद होते थे। देव आनंद की फ़िल्म का मतलब था; देव आनंद, देव आनंद और सिर्फ देव आंनद। एक से दस तक वही होते थे और बाकी सारे पूरक। यह बेशक आत्ममुग्धता थी। दिलीप कुमार में भी थी पर देव आनंद जितनी नहीं थी। देव आनंद के मन में कभी यह इच्छा-उच्छ्वास नहीं रही कि वे दिलीप कुमार के साथ काम कर लें। जिस तरह राजकपूर एक फ़िल्म में दिलीप कुमार के साथ आये हैं, देव आनंद भी आये लेकिन कभी भी इसका जिक्र करना पसंद नहीं किया। वे 'इंसानियत' की चर्चा पसन्द नहीं करते थे और कभी भूले से जिक्र आ भी गया तो इस तरह से आता कि जैसे वो उनकी कोई गलती हो। जैसे किसी ने उनका इस्तेमाल कर लिया हो। उन्हें सबसे ज्यादा जो बात अखरी थी वो शायद यह थी कि उनके चेहरे पर मूँछ चिपका दी गयी थी।
 
देव आनंद सबसे पहले अपने आप को सबसे बड़ा मानते थे। यहाँ तक कि वे यह भी नहीं मानते थे कि 'गाइड' सबसे पहले विजय आनंद की फ़िल्म है। वे यह भी नहीं मानते थे कि विजय आनंद उनसे ज्यादा प्रतिभाशाली निर्देशक हैं। और सबसे मजे की बात यह है कि इस बात का विजय आनंद साहब को कोई अफसोस नहीं था। वो उन्हें पापा कहा करते थे, जबकि देव बड़े भाई थे। चेतन आनंद तो उनसे भी बड़े थे पर वे चेतन को पापा नहीं कहा करते थे। देव आनंद को कहते थे क्योंकि उन्हें उनके साथ काम करना होता था। उन्होंने देव आनंद को कई फिल्मों में डायरेक्ट किया और बहुत-सी छोड़ भी दी। लेकिन एक ही फ़िल्म बहुत बड़ी है और वो है 'गाइड'। 'गाइड' न होती तो देव आनंद का वो मुकाम न होता जो आज है। वो उस ऊंचाई पर नहीं होते, जहाँ आज दिखाई पड़ते हैं।
 
भले ही हम देव आनंद की अधुनातन कही जाने वाली फिल्म 'बाज़ी' की ही मिसाल ले लें। गीतों का माधुर्य यहाँ भी है, जबकि इसके साथ 'नियो-नायर' का विशेषण जोड़ा गया क्योंकि अंग्रेजी नाम हमें बड़े अच्छे लगते हैं। हम चीजों को ठीक से अपने ढंग से व्याख्यायित भी नहीं कर सकते। 'बाज़ी' अपने समाज में बहुत टुच्चे किस्म के छल-छद्म को खोलने वाली फिल्म है। सच तो यह है कि अपने समाज में तब यही छोटे-मोटे षड्यंत्र, छल-छद्म हुआ करते थे। माफिया जैसी कोई अवधारणा नहीं थी। ये बाह्य तत्व हैं। हमारे यहाँ बाहर वाले उतने अपराधी नहीं हैं, जितने अपने बीच के हैं। हम अपना घर-समाज ठीक रखें तो इन अवांछित तत्वों की कोई गुंजाइश नहीं बनती। यदि हम अपना घर विघटित होने से बचा लें तो हमारा समाज विघटित नहीं होगा। मुक्तिबोध यूँ ही नहीं कहते कि संयुक्त परिवार का टूटना बीसवीं सदी की सबसे बड़ी दुर्घटना थी। आज यह बहुत नग्न स्वरूप में हमारे सामने है। छोटे-छोटे शहरों में भी यह परिकल्पना जन्म ले चुकी है कि क्या हमें समय रहते अपने लिये वृद्धाश्रम की व्यवस्था नहीं कर लेनी चाहिये? कभी- कभार ही कोई राजकुमार हिरानी जैसा डायरेक्टर होता है जो बड़ी ही खूबी के साथ समाज को यह आईना दिखा देता है कि देखो! इन बुड्ढों के साथ क्या हो रहा है? ये किस तरह से सम्मान के, अपने-पन के, मोहब्बत के आकांक्षी ही नहीं हैं, बल्कि ये तुम्हारा उनके प्रति कर्तव्य भी है। कभी राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा था ये गाना, "ले लो ले लो दुआएँ माँ-बाप की/सर से उतरेगी गठरी पाप की..।" '
 
बागवान' फ़िल्म इस विषय को बहुत सतही ढंग से छूती है। पुरस्कार के जरिये पैसे आते ही सब कुछ ठीक हो जाता है। यही काम तो अमिताभ बच्चन साहब एंग्री यंग मैन के जरिये भी कर रहे थे। अकेले कर रहे थे। सिर्फ एक-अकेला इंसान अकेले व्यवस्था को और दुनिया को बदल रहा था। दक्षिण के सिनेमा में यह आज भी चल रहा है कि अकेला नायक पूरी सेना को परास्त कर सकता है। हकीकतन अकेले इंसान से दुनिया नहीं चलती। अकेला इंसान दुनिया की तस्वीर नहीं बदल सकता। दुनिया किसी एक का नाम नहीं है, यह समूह वाचक संज्ञा है।
 
 देव आनंद साहब किसी को अपने से आगे मानते नहीं थे। किसी को अपने आगे देखते नहीं थे। देखने का उनका मन ही नहीं था। वो कहते थे कि जो मेरी फिल्में देखने आता है, वो तो मुझे देखने आता है। वो मुझसे अभिभूत है। अब  "खोया खोया चाँद" कितना ही बढ़िया क्यों न लिखा गया हो, उसके लफ्ज़ कितने ही पुरअसर क्यों न हों, कितना ही अच्छा क्यों न गाया गया हो, कितनी ही खूबसूरती से क्यों न फिल्माया गया हो, उसका संगीत कितना ही शानदार क्यों न हो;  इन सबको प्रस्तुत करने वाला तो देव आनन्द ही है। वो तो मुझे ही देखने आते हैं! मेरी जगह कोई दूसरा होगा तो गाने को वो मोहब्बत नहीं मिल सकेगी। यह जो "मैं ही मैं हूँ" का भाव है, यह देव आनंद के यहाँ बहुतायत में है। किसी और के होने की गुंजाइश उनके पास कम ही है। दिलीप कुमार के यहाँ भी। मगर राज कपूर के पास यह मामला ठीक उलट है। उनके पास सबके लिये जगह है। सिर्फ जगह ही नहीं है, बल्कि वह उतना ही महत्वपूर्ण भी है। उनके आगे शैलेन्द्र नहीं है, बल्कि शैलेन्द्र भी राज कपूर ही है। शंकर जय किशन की भी वहाँ उतनी ही गुंजाइश है, जितनी खुद राज कपूर की और वैजयंती माला भी। और नरगिस की तो बात ही अलग थी।
 
1975 तक का मामला ठीक-ठाक रहा। यह अवरोह-काल है। 1960 के बाद वाले इस काल को मैं सिनेमा के सुनहरे दौर का अवरोह काल कहता हूँ। बेशक 1946 से 1960 तक के दौर को आरोह-काल कहा जा सकता है। 1975 के बाद का हमारा सिनेमा एक ऐसा नायक गढ़ता है, जो सब कुछ अकेला ही कर सकता है। यह बाज़ारवाद के चरम रूप में आने से पहले की बात है। कह सकते हैं कि इसी ने बाज़ारवाद का रास्ता बनाने में मदद की। आखिरकार चीजें एक दिन में नहीं बदलतीं। वक्त लगता है। जमीन बनानी पड़ती है। आज़ादी भी कोई एक दिन में तो नहीं मिल गयी थी। लम्बा संघर्ष चला था। कितने लोगों ने कुर्बानियां दी थीं। दुनिया में कोई भी परिवर्तन आहिस्ता-आहिस्ता ही आता है। हमारे अपने भीतर भी यह प्रक्रिया बहुत धीमे-धीमे चलती रहती है। पता ही नहीं चलता कि परिवर्तनशीलता गति में हैं। एक दिन हम बदल जाते हैं और अपने बदलने की खबर हमें नहीं होती। रचनात्मकता का पहला कदम यही है। इसके बगैर वह लंबे समय तक नहीं टिकी रह पाती। फिर भी, कम से कम 1950 से लेकर 1965 तक इन तीन नायकों ने अपने बल पर सुनहरे दौर का तिलिस्म कायम रखा।
 
1960 में राज कपूर एक तरह से खुद को फिर से खड़ा करते हैं। अब नरगिस उनसे जुदा हो चुकी हैं। वे अपनी मोहब्बत का कोई नया तिलिस्म गढ़ना चाहते हैं। राज कपूर का हमेशा से यह मानना रहा कि जो फ़िल्म की नायिका होती है, वह नायक की प्रेयसी भी होनी चाहिये। लोगों को लगना चाहिये कि यही नायक की असल प्रेमिका है। दर्शक दोनों को एक-दूसरे के साथ जोड़कर ही देखना चाहते हैं। कमोबेश यही समझ दिलीप कुमार की भी है। मगर देव आनंद दिखाते इस तरह से हैं कि लोगों को लगता है कि वे डूबते नहीं है। सुरैया के बाद कल्पना कार्तिक के साथ भी वे मोहब्बत में डूबे हुये नज़र नहीं आते। लेकिन हर नायिका के साथ वे इस तरह का व्यवहार करते हैं कि उनसे अलग होने के बाद भी उनकी नायिकाएँ उनकी प्रशंसा ही करती हैं। प्रशंसा के अलावा उनके पास और कुछ नहीं होता। 
 
यह खुशनसीबी राज कपूर को तो हासिल हो ही नहीं सकती थी। दिलीप कुमार को भी नहीं थी। यह सिर्फ देव आनंद के हिस्से में रही। वहीदा रहमान ने जितनी फिल्में दिलीप कुमार के साथ कीं, लगभग उतनी ही देव आनंद के साथ की होंगी। दिलीप कुमार के साथ कुछ ज्यादा ही हो सकती हैं। संख्या में एक-दो का फेर हो सकता है। लेकिन वहीदा रहमान जितनी देव आनंद के साथ सहज नज़र आती हैं, उतनी दिलीप कुमार के साथ नहीं। यह बात उन्होंने अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीकों से कही भी है। बाद के वर्षों में वे अमिताभ बच्चन के साथ बहुत सहज दिखाई पड़ती हैं। यों अमिताभ के पास यह सलाहियत तो रही ही है कि उन्हें जहाँ से जो अच्छा मिले, वे उसे ले लेते हैं। इसमें वे कोई संकोच नहीं करते और इस तरह से पेश भी करते हैं कि यह तो मेरा स्वभाव ही है। यह जिंदगी का एक बड़ा हुनर भी है। एक या दो अभिनेत्रियों को छोड़कर वे बाकियों के साथ हद से ज्यादा शालीन दिखाई देते हैं और यहाँ वे देव आनंद के ही रास्ते पर चलते दिखाई पड़ते हैं। भले ही वे दिलीप कुमार को बड़ा अभिनेता मानते रहे हों, पर जिनके नक्शे-कदम पर वे चलते हैं, वे देव आनंद हैं।
 
देव आनंद ने अपनी तारीफ अपने-आप से न करते हुये, अपनी फिल्मों से की है। उन्होंने बताया कि ये सारी फिल्में मैंने बनाई हैं। इसका निर्देशक कोई भी हो, इसका संगीत निर्देशक कोई भी हो, इसकी नायिका कोई भी हो; लेकिन यह फ़िल्म तो देव आनंद और सिर्फ देव आनंद की है। इसलिये उन्होंने अपनी किताब में शैलेन्द्र का ज़िक्र नहीं किया तो यह भी स्वाभाविक ही था। 'ज्वेल थीफ' में उनका एक ही गाना था-"रुलाके गया सपना मेरा।" बाकी दो फिल्में और थीं, 'काला बाज़ार' और 'गाइड'। इसके अलावा कोई और फ़िल्म नहीं है, जिसमें शैलेन्द्र ने उनके लिये गीत लिखे हों। लेकिन देव आनंद सिर्फ निर्माता या सिर्फ निर्देशक तो नहीं हैं, बल्कि अभिनेता भी हैं और ऐसी बहुत-सी फिल्में हैं, जिनमें बतौर अभिनेता शैलेन्द्र ने उनके लिये गीत लिखे हैं। 'गाइड' के साथ 'काला बाजार' के जो गीत हैं, वे तो अद्भुत ही हैं। सचिन देव बर्मन का संगीत है और सचिन के लिये शैलेन्द्र ने अनेकानेक गीत लिखे हैं, भले ही उनका नाम राज कपूर के साथ चिपका दिया गया हो। फ़िल्म चाहे जिसकी रही हो, जितने भी 'इंट्रोडक्टरी' या परिचयात्मक गीत हों, सभी संगीत निर्देशकों ने इनके लिये शैलेन्द्र के पास ही जाना पसंद किया। शैलेन्द्र ने शंकर जय किशन और सचिन देव बर्मन से लेकर सलिल चौधरी तक के लिये गीत लिखे। ऐसा कोई संगीत निर्देशक नहीं है, जिसने शैलेन्द्र की जरूरत महसूस की हो और शैलेन्द्र ने उनके लिये काम न किया हो। "अनारकली" में तो उन्होंने ऐसे गीत लिखे हैं, खालिस उर्दू लफ़्ज़ों में गोया वे शकील बदायूनी के हों। कुछ इसी तरह का कमाल साहिर करते हैं जब वे "मन रे! तू काहे न धीर धरे" या "तोरा मन दर्पण कहलाये" लिखते हैं। तो जो जहालत इन दिनों हमें देखने को मिल रही है, वो अपने  हिंदुस्तानी सिनेमा में पहले कभी नहीं रही। वहाँ कोई भेदभाव नहीं था। यह बात तो हजारों बार कही गयी है कि यहाँ एक से एक भजन मुसलमानों ने लिखे, उनका संगीत मुसलमानों का रहा, गाया भी किसी मुस्लिम ने और पेश करने वाले अभिनेता भी मुस्लिम थे और मजे की बात ये है कि फ़िल्म बनाने वाले भी वही। गंगो-जमनी तहजीब की इससे बड़ी मिसाल कहीं और नहीं मिल सकती। जिस जमीन पर हम यहाँ बैठे हैं, बस थोड़ी ही दूरी पर हमने उस्ताद अलाउद्दीन खान साहब को माँ शारदा की सेवा करते देखा है और बगल में बनारस है, जहाँ बिस्मिल्ला खान साहब काशी विश्वनाथ के दरबार में शहनाई बजा रहे हैं।
 
  •  सिने-रसिक प्रहलाद अग्रवाल से बातचीत पर आधारित। आपके साथ लिखी गयी किताब का सम्पादित अंश। किताब इस साल दिसंबर माह में आपके हाथों में होगी।