वह मुझे ‘रोम’ की सड़कों पर वैसे ही चलते हुए दिखी थी जैसे वहां कई दूसरे सैकड़ों लोग चल रहे थे. उन सभी के लिए उसमें कुछ भी निराला नहीं था. मेरे लिए था. उम्र समझने की कोशिश करूँ तो वह सत्तर के आस-पास की होगी. घुटनों तक की एक चुस्त सी स्कर्ट. एक सुन्दर सी फ्लोरल शर्ट. उस पर एक ओवेरकोट. एक हाथ से ट्रोली बैग घसीटती, अपनी झुकी हुई कमर लेकर वह तने हुए आत्मविश्वास से आगे बढ़ रही थी. सड़क पार करते समय हमारी आपस में आँखें टकराई थीं. वैसे ही जैसे हजारों मुसाफिरों की आपस में टकराती होंगी. उसने मुझमें कुछ नहीं देखा होगा. मगर मुझे उसमें बहुत कुछ दिखा.
उसके चेहरे पर झुर्रियां थीं मगर उन झुर्रियों के पीछे से उसकी सुन्दरता आज भी झांक रही थी. उसकी आँखों में मुझे बेबसी या लाचारी नहीं दिखी, कि कैसे वह बुढ़ापे में यूँ अकेले छोड़ दी गई है. हमारे देश में यदि कोई सत्तर वर्ष की महिला स्वयं अपना ट्रोली बैग घसीटते हुए दिख जाए तो हम उस पर तरस खाते हैं.
मुझमें भी वही संस्कार हैं. इसलिए पहली दफ़े जब मैंने उसे देखा मुझे भी उस पर, पाश्चात्य संस्कृति पर तरस आया. कैसे यहाँ बच्चे अपने माता-पिता को अकेले छोड़ देते हैं. यह ठीक नहीं. बुरा है. फिर जब मेरी उससे आँखें टकराईं और उन आँखों में मुझे स्वतंत्रता, आत्मविश्वास और ख़ुशी की झलक दिखी तो लगा कि शायद यही ठीक है.
सम्मान और पराधीनता में फ़र्क करना शायद हम स्त्रियों को सीखना चाहिए. ‘अब तो बुढ़ापा आ गया, अब हम क्या करें’ कहकर पचास साल की उम्र से ही अपने बेटे-बहु पर अपनी और अपने शरीर की ज़िम्मेदारी डाल देना क्या उचित है? क्यों हमारे यहाँ की स्त्रियों का बुढ़ापा जल्दी आ जाता है या वे जल्दी ग्रहस्थी का काम-काज छोड़कर धर्म-ध्यान में लग जाना चाहती हैं?
क्या इसका कारण वाकई शारीरिक कमजोरी है या अपनी ढर्रे की ज़िन्दगी से पैदा हुई एक ऊब? या मन में यह भावना कि जिस तरह हम जिए उसी तरह हमारी बहु भी दिन रात ख़ुद को गृहस्थी में झोंककर जिए?
अपनी विदेश यात्राओं के दौरान जो मुझे सीखने मिला है वह यही कि साठ-सत्तर साला स्त्रियाँ पीठ पर बैग टाँगे दुनिया घूमने निकली हैं. वे ट्रेन के टिकिट की लाइन में ख़ुद खड़ी हैं न कि उनके बच्चे. वे ट्रेन में अपने लिए ख़ुद जगह बना रही हैं, वे बसों में खड़ी हैं, वे खाने-रहने और सोने की व्यवस्था ख़ुद कर रही हैं. क्या इसका अर्थ यह है उनके बच्चे लायक नहीं? या यह मानू कि वे शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से अपने दम पर खड़ी होने आने-जाने के लिए स्वतंत्र हैं. उनमें दूसरों से नाउम्मीदी अगर है भी तो उसका सकारात्मक पहलु यह है कि वे अपने में खुश हैं. वे दुःख में अपने नाते-रिश्तों में ख़ुशी ढूँढ-ढूँढ कर रोकर दिन नहीं बिता रहीं.
मैं नहीं जानती कि मेरी यह समझ कितनी सही है, कितनी ग़लत. मैं उस दिन रोम में उस औरत से जो सबक लेकर वापस लौटी हूँ वह यही कि मैं अपने बुढ़ापे में अपनी बहु से सेवा कराने की प्रार्थना/उम्मीद नहीं रखती. मैं नहीं चाहती कि भविष्य में बहु को उसका जीवन छोड़ ढर्रे की गृहस्थी ढोने पाठ पढाऊँ. मैं नहीं चाहती कि मैं शारीरिक रूप से असमर्थता के साथ ज़िन्दगी के कई साल गुज़ार दूँ. और बिस्तर पर पड़े-पड़े यह देखती रहूँ कि मेरी कितनी सेवा हो रही है, और कितनी नहीं. और न ही मैं यह चाहती कि मेरे जीवन में आने-जाने के निर्णय मेरी शारीरिक असमर्थता पर टिके हों. बस इतना ही चाहती हूँ कि उस औरत की ही तरह भले सत्तरवें साल में मेरी पीठ झुक जाए मगर मेरा आत्म-विश्वास इतना मजबूत हो कि मैं अपने हाथों से अपना बैग खींचते हुए दुनिया घूम सकूं।
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