बरसात
सबके सामने बरसा है बादल
उनके नाम-
जिनके पुए नहीं पके
जिन्होंने पींग नहीं झूली
गीली रोशनी गवाह है
नंगे पैरों की कविता कीचड़ में लिखी हुई..
बेनाम कवियों द्वारा
जिन्हें महीने का नाम
सिर्फ खास मौसम की खारिश से याद आया
संगीत न गला, न डूबा
भीगे हुए आलम ने सरेआम सुने
वृक्षों से टपके निखरे हुए बोल
हवा में बिखरे शब्द
पथों पर बहते गीत
वे आते रहे
और मिट्टी में बलिदान होते
बहाते रहे अपना रक्त
वे बूंदें थीं
जिनकी लाशों पर चलकर
दरियाओं ने रवानी पकड़नी थी
दिशा ढूंढनी थी..
फिर घूरे के ढेरों की
बदबू घुल गई सारी
झोपड़ियों से उबलते चावलों की महक आई
और फिजा में गूंज उठे
बरसात के गीत
खेतों में धान बोए गए
और गांव की ड्योढ़ी में ताश खेली गई..