• 29 Apr, 2025

किताब का भविष्य

किताब का भविष्य

दिनेश श्रीनेत
दिनेश श्रीनेत


किताब के भविष्य के प्रति प्रति आशंकाएं और उम्मीद    साथ-साथ चलती हैं. इन दिनों किसी से बात करें तो वह किताब के भविष्य के बारे में बहुत आश्वस्त स्वर में बात नहीं करेगा... 

 
पर कहीं न कहीं उसे यह भी यकीन रहता है कि भले लोग पढ़ना कम कर चुके हों, शब्दों का यह संसार मनुष्य के साथ बना रहेगा. मेरे मन में पिछले कई दिनों से इससे संबंधित दो सवाल कौंध रहे हैं. एक, क्या किताब का कोई विकल्प है? दूसरा, किताब की उपस्थिति अगर बनी रहेगी तो किस रूप में? 
 
कम से कम अभी जिस रूप में है उस रूप में किताबों का बना तो काफी नहीं है. मन में उठ रहे इन सवालों के पीछे एक वजह है. छपाई, प्रिटिंग टेक्नोलॉजी आसान हुई है. सोशल मीडिया ने बहुत सारा कंटेट 'प्रोड्यूस' करना आरंभ किया है. उस कंटेंट को वैधता मिल गई यह तभी माना जाता है जब वह परंपरागत रूप-रंग में यानी कि छपकर सामने आए. 
 
लिहाजा हो यह रहा है- हिंदी में किताबें बहुत छप रही हैं, ज्यादातर पाठकीय दृष्टि से अपठनीय किताबें हैं. उनकी उम्र अगले बसंत तक ही रहती है. 'जब तक है जाँ' लेखक ही किताबों की चर्चा करता है, सोशल मीडिया पर उसकी उंगलियाँ थमी नहीं कि किताब को लोग भूले. 
 
वैसे अंगरेजी का हाल भी कोई बहुत अच्छा नहीं है. सेल्फ हेल्प और लर्निंग वाली किताबों का भविष्य खत्म होने जा रहा है. उसकी जगह यूट्यूब वीडियो, मास्टरक्लास, कोर्सेरा और डोमेस्टिका जैसे ऑनलाइन कोर्स ले लेंगे. 'शेयर बाजार में निवेश कैसे करें' या 'एक सफल लेखक कैसे बनें' जैसी किताबें खरीदने के जमाने गए, इन्हें पढ़ने की जगह यूट्यूब पर किसी एक्सपर्ट के वीडियो देखना काफी होगा और लाभप्रद होगा. लेकिन उन किताबों का महत्व बढ़ेगा जो सूचनाओं के असीमित प्रवाह में आपके लिए एक दृष्टिसंपन्न कंटेंट लेकर आएंगी. 
 
जैसे इतिहास की गलत-सही जानकारियों से इंटरनेट भरा हुआ है, तो रामचंद्र गुहा की किताबें यहां इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती हैं क्योंकि वह इतिहास और ऐतिहासिक व्यक्तित्व को समझने के लिए समग्र दृष्टिकोण लेकर आती हैं. यदि लेखक इस आत्मविश्वास के साथ अपने पाठक के पास आ रहा है कि वह अपने स्पष्ट और तर्कसंगत दृष्टिकोण के साथ आपको तथ्यों की छानबीन करने में मदद करेगा तो वह किताब निःसंदेह पाठक को आकर्षित करेगी. 
 
ऑक्सफोर्ड ने 'अ वेरी शॉर्ट इंट्रोडक्शन' के नाम से विभिन्न विषयों को समझने की एक सिरीज़ आरंभ की थी, ऐसी किताबें आगे भी चलेंगी. 'पश्चिमी दर्शन का इतिहास' समझने के लिए अब किताब की जरूरत नहीं है, यू ट्यूब और विकास दिव्यकीर्ति के वीडियो इस काम को ज्यादा बेहतर ढंग से करेंगे, मगर उसी जगह 'सोफी का संसार' की लोकप्रियता बढ़ती रहेगी. क्योंकि वह दर्शन को समझने के लिए एक रचनात्मक हस्तक्षेप है. 
 
युवाल नोवा हरारी भी इसीलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि वह आपके जटिल परतदार वर्तमान और भविष्य की रोशनी में अतीत की समझ पैदा करने का प्रयास करते हैं. अशोक कुमार पांडेय की किताबें इसीलिए अपनी लोकप्रियता बना पाईं क्योंकि वह कश्मीर, गांधी और सावरकर के बारे में बुनियादी समझ और संदर्भ सामग्री प्रस्तुत करती हैं. 
 
अब फिक्शन की तरफ आते हैं. मुझे लगता है कि सिर्फ कहानियों में लोगों की दिलचस्पी घटती जाएगी. वे लेखक जो कोई कहानी बुनकर बस उसे बयान कर देते हैं, या रोचक बनाने के लिए हर चेप्टर से पहले शायरी, कुछ कोट्स लिख देते हैं, या नाटकीय तरीकों से चेप्टर का विभाजन करके उत्सुकता बनाए रखने का प्रयास करते हैं, उनके दिन आहिस्ता आहिस्ता खत्म होते जाएंगे. 
 
वे जबरन कह-कहकर अपनी किताबें भले इधर-उधर बेच लें, चर्चा करा लें और लेखक बनने का तमगा लगाकर उसी तरह खुश हो लें जैसे कि कोई नगर पंचायत का सदस्य बनने पर होता है, मगर लगता तो नहीं कि साहित्य में याद रखने लायक वे कुछ रच पाएँगे. 
 
यह मेरी बहुत निजी सोच है मगर मुझे लगता है कि मोबाइल या लैपटॉप छोड़कर, ओटीटी और सोशल मीडिया छोड़कर कोई किताब तभी उठाएगा जब... वह किताब अपने पाठ के दौरान आपको एक अलग, गहरा भावनात्मक अनुभव देने में सक्षम होगी. 
 
पिछले साल 2023 की सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में कोलीन हूवर की 'इट एंड्स विद अस' और 'इट स्टार्ट्स विद अस' शामिल है. ऐसा क्या हो जाता है कि एक ऐसी लेखिका जिसे कोई नहीं जानता था, जिसने अपनी शुरुआती किताबें किंडल के सेल्फ पब्लिशिंग मॉडल में प्रकाशित कीं, रातों-रात अमेरिका की सबसे ज्यादा बिकने वाली उपन्यासकार बन जाती है. 
 
'इट एंड्स विद अस' घरेलू हिंसा से पीड़ित एक लड़की लिली ब्लूम की कहानी है, जिसमें वर्णित इंटेस प्रेम और हिंसा की भावनाओं से शायद न सिर्फ अमेरिकी स्त्रियां बल्कि दुनिया भर की स्त्रियां कनेक्ट हो सकीं. यदि हम 'गुडरीड्स' वेबसाइट पर कोलीन हूवर के उपन्यास पर प्रतिक्रियाएं देखेंगे तो समझ में आएगा कि भले इस उपन्यास को प्रशंसा मिली हो या आलोचना, उनके लेखन ने अपने पाठकों को भावनात्मक रूप से बहुत गहरे तक उद्वेलित किया. 
 
इसके अलावा हम शायद उन कहानियों को उठाएंगे जिनकी विश्वसनीयता पर हमें यकीन होगा. यानी आत्मकथाएँ, जीवन के खट्टे कड़वे अनुभव, शहरनामा, बचपन की भूल-भुलैया में भटकता गद्य. हिंदी में '12वीं फेल' और 'डार्क हार्स' बेस्ट सेलर इसलिए है कि वह एक जाने-पहचाने मगर हिंदी साहित्य कम दर्ज हुए परिवेश का प्रामाणिक चित्रण कर पाती है. 
 
छोटे शहरों की प्रेम कहानियां कहने वाले दिव्य प्रकाश दुबे से उसी परिवेश से आया मगर नोएडा, पूणे में नौकरी कर रहा युवा कनेक्ट हो जाता है. अशोक पांडे की 'लपुझन्ना' का अनूठा परिवेश और रोचक किरदार हमें खींच लेता है. आने वाले इस 'पोस्ट ट्रुथ' दौर में 'सच' ही काम करेगा, यानी जैसे दरिया साहब कह गए- 
 
कानों सुनी सो झूठ सब, आंखों देखी सांच
दरिया झूठ सो झूठ है, सांच सांच सो सांच।
 
अब अगली बात, जिसकी तरफ राजकमल प्रकाशन के आयोजन में कै़फ़ी हाशमी ने उम्बर्तो इको के हवाले से संकेत किया था, पाठक उस किताब या लेखक के प्रति आकर्षित होता है, जो उसे चुनौती भी देती हैं. भले 'रेत समाधि' हिंदी में चर्चित न हो पाया हो, उसने अपनी जमीन बना ली, अंगरेजी में अनुवाद हुआ, बुकर मिला और हिंदी किताब एक बार फिर पढ़ी गई, उसकी पठनीयता और अपठनीयता पर खूब विवाद भी चला. 
 
खालिद जावेद का उपन्यास 'मौत की किताब' अपेक्षाकृत नए 'दखल प्रकाशन' से उर्दू से हिंदी में छपता है और बिना शोर-शराबे के उसकी डिमांड बढ़ती जाती है. 'नेमत ख़ाना' का अंगरेजी में अनुवाद होता है और भारतीय भाषाओं का सबसे प्रतिष्ठित जेसीबी अवार्ड उनके नाम हो जाता है. जबकि गीतांजलि श्री की तरह उर्दू और हिंदी के पाठक उन पर भी दुरूहता-दार्शनिकता का आरोप लगाते रहे हैं. कृष्ण बलदेव वैद, स्वदेश दीपक और निर्मल वर्मा को दोबारा खोज-खोजकर पढ़ा जा रहा है. भारतीय पाठकों में जटिल कहे जाने वाले उम्बर्तो इको भी लोकप्रिय हुए हैं और मुराकामी भी. 
 
अंतिम बात, वह किताबें पढ़ी जाएंगी जिनकी भाषा, शैली, बयानिया आपको पढ़ने का सुख देगा. यानी जिसे पढ़ते हुए आप भाषा के माध्यम कुछ और तो जानें मगर पढ़ने की प्रक्रिया का भी सुख ले सकें,  ठीक उसी तरह जैसे आप कुमार गंधर्व को महज कबीर के पद सुनने के लिए नहीं सुनते बल्कि आधे घंटे या 45 मिनट तक उनकी गायकी की कैफ़ियत में रहते हैं. ऐसा गद्य लिखना, ऐसा नैरेटिव लिखना, सघन परतदार शैली विकसित कर पाना आसान नहीं है. माफ कीजिए, जबरन उर्दू और देशज शब्दों को डालने से भी बात नहीं बनेगी. रचना की भाषा को उसी तरह बुनना होगा जैसे हथकरघे पर चादर बुनी जाती है. 
 
झीनी झीनी बीनी चदरिया। 
काहे कै ताना काहे कै भरनी, 
कौन तार से बीनी चदरिया
 
उतना ही जटिल बुनो जितना जीवन होता है, उतना ही सहज बुनो जैसा जीवन होता है.