(छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार, इतिहास विज्ञ स्व. हरि ठाकुर जी ने अपने प्रिय अनुजवत कवि बसंत दीवान की कविताओं और उनके व्यक्तित्व पर आज से कोई 34 साल पहले 4 अप्रैल 1988 को उनकीकविताओं की किताब ‘अनुगूंज’ के लिए जो संस्मरण लिखा था वह ज्यों का त्यों। कवि बसंत दीवान ने ‘पृथक छत्तीसगढ़आंदोलन’ में भी डॉ खूबचंद बघेल के साथ मिलकर पूरे दस साल सन 1958 से 68 तक सक्रिय भागीदारी की थी, उनके साथ गांव-गांव जाकर ओजपूर्ण कविताओं से पृथक राज्य के लिए अलख जगाया था। )
ब संत दीवान हृदय से उत्कृष्ट कवि हैं। उनसे कवि के रूप में मेरा परिचय बहुत पुराना है। आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व एक संवेदनशील कवि के रूप में उनसे मेरा परिचय हुआ। उस समय उनकी एक छोटी सी पुस्तिका प्रकाशित हुई थी – ‘नवा बिहान’। उनकी काव्य प्रतिभा ने उसी समय मुझे प्रभावित कर लिया था। उनकी भाषा में ओज है, सहज प्रवाह है। व्यवसाय से वे एक कुशल छायाकार रहे हैं। वे प्रसिद्ध सर जे.जे. स्कूल ऑफ फाइन आर्ट मुंबई से दीक्षित थे।
बसंत दीवान जनता के अपने चहेते कवि भी रहे हैं। साहित्यिक भाषा में उन्हें जन कवि कह सकते हैं। शोषण, अन्याय, गरीबी और दमन के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने में वे सबसे आगे रहे। यही कारण है कि उनकी वाणी में विद्रोह का प्रखर स्वर हमें सुनाई पड़ता है। समय की पुकार पर वे अपनी लेखनी ही नहीं उठाते वरन मुट्ठी तान कर सड़क पर भी उतर आते हैं। वस्तुतः वे अपने आप को आम जनता के बीच पाते हैं, उनके दुःख –सुख को भोगते हैं। उन्होंने कभी स्वयं को विशिष्ट श्रेणी में रखने या देखने का प्रयास नहीं किया।
आम तौर पर छत्तीसगढ़िया सीधा-सादा और भोला-भाला होता है। इस अर्थ में सबसे बढ़िया छत्तीसगढ़िया – बसंत दीवान हैं। वे जो कहना चाहते हैं साफ-साफ कहने का साहस रखते हैं। आज जब साहित्य में तेजी से चापलूसीकरण हो रहा है , चारण कवियों की भीड़ बढ़ रही है तब बसंत दीवान जैसे दो टूक कहने वालों को खतरा है ही। किन्तु खतरा मोल ले कर भी जो मोर्चे पर डटा रहे वही तो सच्चा सिपाही है। कलम के ऐसे ही सिपाही की यह कृति बड़ी प्रतीक्षा के बाद प्रस्तुत हुई है।
बसंत किस तरह के कवि हैं यह उनके ही शब्दों में पढ़िये-
और अंत में मैंने अपने मन से पूछा
बोलो श्रृंगार किसे कहते हैं ...?
उत्तर मिला –
जो औरों के गम पहचाने, औरों को जो अपना माने
गिरतों को ऊपर उठाए जो, रोतों को साथ हंसाये जो
कांटो पर जो चलना जाने, तूफानों पर पलना जाने
औरो का जो हरने अंधियारा, खुद दीपक सा जलना जाने
सारा जग, जग सारा बेकार जिसे कहता है
मेरा मन, मन मेरा श्रृंगार उसे कहता है..
वस्तुतः इन पंक्तियों में बसंत दीवान ने अपने काव्य व्यक्तित्व को परिभाषित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं उन्होंने इन पंक्तियों में जैसा दावा किया है वैसा जीवन जीया भी है। ऐसे लोगों के पथ में कांटे होते हैं, तूफानों को झेलना ही पड़ता है। बसंत दीवान उन सुखियारे कवियों में नहीं रहे जो ड्राइंग रूम में बैठ कर जन संघर्ष की बातें करते हैं, अपने बंगले के गमलों में क्रांति उगाते हैं। उन्हें भी अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना पड़ता है। माथे पर से पसीना निचोड़ कर कविता लिख पाते हैं- इसकी एक बानगी है-
संघर्ष बिछौना है मेरा, संघर्ष ओढ़कर सोता हूँ
हंसते गाते हर पल हर छिन मैं संघर्षों को ढोता हूँ।
सच पूछा जाए तो जीना का मजा तो संघर्ष में ही है। संघर्ष ही पौरुष की कसौटी है। संघर्षहीन जीवन में न तो अनुभूति की गहराई होती है और न ही वैसी तेजस्विता। इस तेजस्विता का ही परिणाम है कि उनकी लेखनी यह उद्घोषणा कर सकती है –
जब तक फुटपाथों पर लोग उम्र- उम्रभर सोते हैं
जब तक रोटी के टुकड़ों को नन्हें-मन्ने रोते हैं
तब तक कैसे गीत लिखूं मैं बापू-नहरु की जय के ?
तब तक कहो लिखूं मैं कैसे कोई गीत प्रणय के ?
असली देशभक्ति इसमें नहीं कि आप जय के नारे कितनी जोर से लगाते हैं ? बल्कि असल देशभक्ति तो इसमें है कि दरिद्रनारायण में आप देश का टुकड़ा तलाश करते हैं। एक कवि के लिए यह अति आवश्यक है कि वह सबसे पहले मनुष्य की पीड़ा को पहचाने । जिसको इसकी पहचान नहीं, संवेदना नहीं वह कवि होने का हकदार भी नहीं। हमारे समय में जिस तेजी से मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है वह कवि की सबसे बड़ी चिंता है।
आदमी का आदमी ही अब पीने लगा है खून
अपनी ही परछाई से अब डरने लगे हैं लोग..
कवि को यहां आदमीयत की कीमत पर कोई प्रगति स्वीकार नहीं-
पार करने जा रहे हैं अब सदी हम बीसवीं
याद रखना आदमीयत के बिना सब है सून..
पंजाब की घटनाओं ने प्रत्येक राष्ट्रनिष्ठ नागरिक को मर्माहत किया है। जो लोग धर्म को मनुष्यता और देश से बड़ा समझते हैं वस्तुतः वे धर्म का अर्थ ही नहीं समझते। एक संवेदनशील कवि के लिए तो य़े घटनाएं अत्यंत पीड़ा दायक हैं। इसी पीड़ा से व्याकुल होकर बसंत दीवान ने लिखा है-
मंदिर की सारी पवित्रता तुमसे ही खुद भंग हो गई
हथियारों का देख झखीरा सारी जनता दंग रह गई
कौन ग्रंथ में खून खराबा लिखा जरा मुझे बतलाना ?
कौन ग्रंथ में लिखा हत्याएं कर मंदिर में छुप जाना ?
धर्म का कवच पहन कर हत्याएं करने वाले देश के गद्दारों और मनुष्यता के शत्रुओं को कभी क्षमा नहीं किया जा सकता जो निरीह और निहत्थे लोगों की रोज हत्याएं कर रहे हैं। कवि बसंत दीवान आशावादी और उदार भी हैं वे अपनी कविता में कहते हैं कि यदि ये गुमराह लोग अपनी भूल स्वीकार कर राष्ट्र की मुख्य धारा में जुड़ जाते हैं तो हम उन्हें गले लगाने को भी तैयार हैं-
सुबह का भूला शाम को लौटे, इसमें बुरा नहीं है कुछ भी
आओ गले मिलें आपस में , समझें हुआ नहीं है कुछ भी
शर्त यही है कि –
अब न दुबारा ऐसी गलती , फिर हमसे दुहराई जाए ..
बसंत दीवान जन चेतना के विस्फोटक कवि हैं। जनभावना को तीव्रता के साथ अभिव्यक्त करने के लिए उनकी लेखनी तिलमिला उठती है । गत दो –ढाई दशाब्दियों से देश में जिस तरह की राजनीति प्रभावशील है वह न तो जनहित में ही है और न ही देशहित में। सामान्यजन की तरह एक कवि एक मत पत्र बनकर नहीं रह सकता। वह कवि के साथ ही एक कर्तव्यनिष्ठ नागरिक भी होता है। यह ठीक है कि भीतर-भीतर सड़ती-गलती व्यवस्था से कवि हाथ-पैर लेकर नहीं लड़ सकता । उससे कुछ होगा भी नहीं। ऐसे में वह अपनी लेखनी को वज्र तो बना ही सकता है। संभवतः इसी आक्रोश ने बसंत दीवान को व्यंग्य कवि बना दिया। राजनीति आज व्यवसाय बन गई है, जो जितनी पूंजी निवेश करता है वह उतना ही प्रभावशाली राजनीतिज्ञ बन जाता है। देश-भक्ति, जन-सेवा, ईमानदारी, शुध्द आचरण, दृढ़ चरित्र – ये सब आज की राजनीति के घोर अवगुण हैं-
एक बानगी देखिए-
सुनो प्यारे इसे कहते हैं तकदीर ।
घोड़ों को तो घास नहीं, गधे खाएं खीर।
हम तो पढ़-लिख कर भी नालायक हो गए
अंगूठा छाप टेटकू विधायक हो गए।।
वो करें शिलान्यास हम उतारें तस्वीर
सुनो प्यारे इसे कहते हैं तकदीर ।।
राजनीति हो गई है अब तो दूकान
करो राजनीति, तानो बंगले और मकान
रूखा-सूखा खाने वाले खा रहे पनीर
घोड़ों को को घास नहीं, गधे खाएं खीर।।
सामंती युग में जिन्हें चारण या भांट की संज्ञा दी गई थी आज कुछ कवियों को चारण या भाट कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि भेष बदल कर सामंती युग का पुनरागमन हो गया है। वही सामंती शान-शौकत, आडम्बर, नखरे-नफासत, मिज़ाज और चमचों की जुगलबंदी। पहले यह तमाशा महलों के भीतर दरबारों में हुआ करता था। अब यह सार्वजनिक रूप से होता है। शर्म –लिहाज का कोई काम नहीं । कवि के शब्दों में इस लज्जास्पद , पीड़ादायक , धिक्कारस्पद स्थिति का विवरण प्रस्तुत है –
बोल रे मिट्ठू तू जय बोल,
नेता-नेतेश्वर की जय बोल ,चमचा-चमचेश्वर की जय बोल,
गीदड़ ओढ़े शेर की खोल, बोल रे मिट्ठू तू जय बोल,
इस सरकार की तू जय बोल , उस सरकार की तू जय बोल,
भ्रष्टाचार की तू जय बोल, बलात्कार की तू जय बोल
साथ में पीटे जा तू ढोल, बोल रे मिट्ठू तू जय बोल।
जो मिट्ठू बन कर जय नहीं बोल पाते उनके लिए कहीं कोई जगह नहीं है। वे सर्वत्र अनफिट हैं। मिट्ठू बन कर जय बोलने वाले ही आजकल हर जगह हिट हो रहे हैं। राजनीति के मार्केट में उन्हीं की वैल्यू है। मूल्य बदल रहे हैं भाई साहब। बसंत दीवान कोई व्यंग्य अभित्रता, पूर्वग्रह या ईर्ष्या के कारण नहीं लिखते। उनकी लेखनी के पीछे एक सार्वजनिक पीड़ा है। पीड़ा जितनी गहरी होगी व्यंग्य उतना ही नुकीला होगा। व्यंग्य लिखकर कवि भी सुखानुभव नहीं करता। इस पीड़ा को सहते हुए भी बसंत दीवान मुस्कुरा सकने का सामर्थ्य रखते हैं। स्वभाव से हंसमुख, विनम्र हैं। सरल और निष्कपट लोग ऐसी अवस्था में ही उपलब्ध होते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति ने उन्हें हास्य-विनोद से भरपूर कर दिया है। अपनी तमाम पीड़ाओं के बाद भी वे निर्मल और आरुग हास्य दे सकते हैं। यह उन्हीं की विशेषता है। ‘लीडर’ और ‘फेलहुआ परवाह नहीं’ इन दो कविताओं में हास्य की प्रचुरता के साथ नई पीढ़ी के युवा छात्रों के सामान्य ज्ञान पर कटाक्ष भी है। वैसे यह कटाक्ष कुछ मंत्रियों पर भी लागू हो सकता है। छात्र जीवन में फेल होने का कारण बसंत दीवान ने सविस्तार समझाया है। बानगी है-
मैं डीपी मिश्रा को
भारत का प्राइम मिनिस्टर लिख आया
इंदिरा गाँधी को मैं नेहरू की सिस्टर लिख आया
लिखा भिलाई महानदी पर बांध बहुत भारी है
और भाखरा नंगल में ढलना लोहा नित जारी है
राउरकेला से पूरे भारत को जाता है नित केला
सारी दुनिया को हीरा देता, केवल हीराकुंड अकेला।
जब इनकी शिक्षा के ये हाल हैं तब उनके लीडर होने की पूरी संभावना है। अब लीडर होने पर वे क्या करतब दिखा सकते हैं उसकी भी बानगी है-
गर भूले से बन जाऊं मैं देश का लीडर
कुतुबमीनार को भारत के बीचोबीच लाऊंगा
नहीं होंगे मेरे राज्य में परिवार नियोजन
जो भी जन्मेंगे उन से फौज की ताकत बढाऊंगा
पड़ेगी टूट मेरी फौज, मेरे एक इशारे पर
कुतुबमीनार के ऊपर से जब मैं ताली बजाऊंगा।
इस विनोदपूर्ण कविता में सत्ताधीशों पर बड़ी मीठी चुटकियां ली गई हैं। मकान भाड़ा कविता में मकान मालिक ने जो सुविधाएं गिनाई हैं, उनमें से भी बसंत दीवान ने हास्य निचोड़ लिया है। कविता का आनंद उन्हें सुन या पढ़ कर उठाया जा सकता है। कविता के साथ जिन देखी तिन मूरत तैसी– कहावत लागू
होती है।
अंत में कवि का नाम बसंत क्यों है इसका खुलासा उन्हीं के शब्दों में पढ़ें-
आओ मेरे पास कि सुन लो मेरा नाम बसंत है
मैं दर्दों को अपने दिल में नित बोऊं नित काटूं
बावजूद इसके दुनिया को मैं मुस्काने बाटूं
दर्दों को जो पीता जाए नाम उसी का संत है
आओ मेरे पास कि सुन लो मेरा नाम बसंत है।।
मैं तो कर्म किये जाता हूं फल पाऊं न पाऊं
मिल जाए तो ठीक न मिले तो न पछताऊं
दो दिन का है जीवन, हंस कर जी एक दिवस तो अंत है
आओ मेरे पास कि सुन लो मेरा नाम बसंत है।।
उनका आशय है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में पार्थ को यही उपदेश दिया कि फल पर आसक्ति रखे बिना ही कर्तव्य किए जाओ। जो इस सूत्र में निहित अर्थ को समझकर आचरण करता है वह कभी निराश, हताश और कुंठा ग्रस्त नहीं होता। बसंत दीवान की कविताएं मुझे रुचिकर और हृदयस्पर्शी लगीं। वे कभी हृदय के बंद कपाटों पर दस्तक देती हैं तो कभी हमारी मानसिक उदासीनता को झकझोरती हैं औऱ कभी चिकोटी काटकर चुपचाप खिसक जाती हैं। संक्षेप में जो कुछ भी जीवंत है वह बसंत है।