• 29 Apr, 2025

दहलीज..

दहलीज..

साहित्यकार निर्मल वर्मा को पढ़ना ऐसे है मानो आपने उन्हें अपनी उंगली थमा दी है, जिसे पकड़कर वह आपको संवेदनाओं की सुदूर, गहराती दुनिया में लिए चले जा रहे हैं. न तो उंगली छुड़ा पाना आसान, न भाग कर लौट पाना. लेकिन कौन होगा जो निर्मल की लेखनी के दर्द और सुख के खूबसूरत मायाजाल से बाहर निकलना चाहेगा, उंगली झटककर लौटना चाहेगा! आज उनकी बात इसलिए क्योंकि आज 3 अप्रैल को उनका जन्मदिन है।

निर्मल वर्मा हिन्दी साहित्य के ऐसे चितेरे हैं जिन्हें जिन्होंने भी पढ़ा, वे उनमें डूबते उतराते रहे. उनकी कहानियां, उनके उपन्यास अपनी अनेकानेक पंक्तियों में जैसे कविता गढ़ते लगते हैं. 

   पिछली रात रूनी को लगा कि इतने बरसों बाद कोई पुराना सपना धीमे कदमों से उसके पास चला आया है, वही बंगला था,अलग कोने में पत्तों से घिरा हुआ.. वह धीरे-धीरे फाटक के भीतर घुसी है.. मौन की अथाह गहराई में लॉन डूबा है.. शुरू मार्च की बसंती हवा घास को सिहरा -सहला जाती है.. बहुत बरसों पहले के एक रिकार्ड की धुन छतरी के नीचे से आ रही है।.. ताश के पत्ते  घास पर बिखरे हैं..लगता है जैसे शम्मी भाई अभी खिलखिला कर हँस देंगे और आपा (बरसों पहले, जिनका नाम जेली था ) बंगले के पीछे क्यारियों को खोदती हुई पूछेंगी - रूनी जरा मेरे हाथों को देख , कितने लाल हो गए हैं।

   इतने बरसों बाद रूनी को लगा कि वह बंगले के सामने खड़ी है.. और सब कुछ वैसा ही है, जैसा कभी मार्च के एक दिन की तरह था कुछ भी नहीं बदला, वही बंगला है,मार्च की खुश्क,गरम हवा सायँ-सायँ करती चली आ रही है, सूनी-सी दुपहर को परदे के रिंग धीमे-धीमे खनखना जाते हैं... और वह घास पर लेटी है.. बस,अब अगर मैं मर जाऊँ,उसने उस घड़ी सोचा था।

   लेकिन वह दुपहर ऐसी न थी कि केवल चाहनेभर से कोई मर जाता। लॉन के कोने में तीन पेड़ों का झुरमुट था,ऊपर की फुनगियां एक-दूसरे से बार-बार उलझ जाती थीं। हवा चलने से उनके बीच आकाश की नीली फांक कभी -कभी मुंद जाती थी, कभी खुल जाती थी। बंगले की छत पर लगे एरियल-पोल के तार को देखो (देखो तो घास पर लेटकर अधमुंदी आँखों से रूनी ऐसे ही देखती है) तो लगता है कैसे वह हिल रहा है हौले -हौले.. अनझिप आँखों से देखो (पलक बिलकुल न मूँदो,चाहे आंखों में आंसूभर जाय तो भी... रूनी ऐसे ही देखती है ) तो लगता है, जैसे तार बीच में से कटता जा रहा है और दो कटे हुए तारों के बीच आकाश की नीली फाँक आँसू की सतह पर हल्के-हल्के तैरने लगती है।

    हर शनिवार की प्रतीक्षा हफ्तेभर की जाती है। .. वह जेली को अपने स्टांप एल्बम के पन्ने खोलकर दिखलाती है.. और जेली किताब से अपनी आँखें उठाकर पूछती है- अर्जेंटाइना कहां है? सुमात्रा कहां है ? .. वह जेली के प्रश्नों के पीछे फैली हुई असीम दूरियों के धूमिल छोर पर आ खड़ी होती है। ... हर रोज नए-नए देशों के टिकटों से एल्बम के पन्ने भरते जाते हैं और जब शनिवार की दुपहर को शम्मी भाई होस्टल से आते हैं ,तो जेली कुर्सी से उठ खड़ी होती है, उसकी आँखों में एक धुली-धुली-सी ज्योति निखर आती है और वह रूनी के कंधे झिंझोड़कर कहती है -जा,जरा भीतर से ग्रामोफोन तो ले आ।

   रूनी क्षणभर रुकती है, वह जाए या वहीं खड़ी रहे ? जेली उसकी बड़ी बहन है, उसके और जेली के बीच बहुत से वर्षों का सूना -लंबा फासला है। उस फासले के दूसरे छोर पर जेली है शम्मी भाई है, वह उन दोनों में से किसी को नहीं छू सकती। वे दोनों उससे अलग जीते हैं। ...  ग्रामोफोन तो महज एक बहाना है, उसे भेजकर जेली शम्मी भाई के संग अकेली रह जाएगी और तब रूनी घास पर भाग रही है बंगले की तरफ.. पीली रोशनी में भीगी घास के तिनकों पर रेंगती हरी,गुलाबी धूप और दिल की धड़कन, हवा , दूर की हवा के मटियाले पंख एरियल पोल को सहला जाते हैं सर्र -सर्र और गिरती हुई लहरों की तरह झाड़ियां झुक जाती हैं। आँखों से फिसल कर वह बूंद पलकों की छांह में काँपती है, जैसे वह दिल की धड़कन है जो पानी में उतर आई है।

 शम्मी भाई जब होस्टल से आते हैं, तो वे सब उस शाम लॉन के बीचोबीच कैनवास की पैराशूटनुमा छतरी के नीचे बैठते हैं। ग्रामोफोन पुराने जमाने का है ।शम्मी भाई हर रिकार्ड के बाद चाभी देते हैं,जेली सूई बदलती है और वह रूनी चुपचाप चाय पीती रहती है। जब कभी हवा का कोई तेज झोंका आता है, तो छतरी धीरे-धीरे डोलने लगती है, उसकी छाया चाय के बर्तनों.. टीकोजी और जेली के सुनहरी बालों को हल्के-से बुहार जाती है और रूनी को लगता है कि किसी दिन हवा का इतना जबरदस्त झोंका आएगा कि छतरी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी और वे तीनों उसके नीचे दब मरेंगे।

   शम्मी भाई जब अपने होस्टल की बातें बताते हैं तो वह और जेली विस्मय और कोतुहल से टुकुर-टुकुर उनके चेहरे, उनके हिलते हुए होंठों को निहारती हैं। रिश्ते में शम्मी भाई चाहे उनके कोई न लगते हों किन्तु उनसे जान-पहचान इतनी पुरानी है कि  अपने -पराये का अंतर कभी उनके बीच आया हो याद नहीं पड़ता। होस्टल में जाने से पहले जब वह इस शहर में आए थे तो अब्बा के कहने पर कुछ दिन उन्हीं के घर रहे थे। अब कभी वह शनिवार को घर आते हैं, तो अपने संग जेली के लिए यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी से अंग्रेजी के उपन्यास और अपने  मित्रों से मांग कर कुछ रिकार्ड लाना नहीं भूलते।  
   
   आज इतने बरसों बाद भी जब उसे शम्मी भाई के दिए हुए अजीब-गरीब नाम याद आते हैं ,तो हंसी आए बिना नहीं रहती। उनकी नौकरानी मेहरु के नाम को चार चांद लगाकर शम्मी भाई ने उसे कब सदियों पहले की सुकुमार शहजादी महरुन्निसा बना दिया, कोई नहीं जानता। वह रेहाना से रूनी हो गई और आपा पहले बेबी बनी , उसके बाद जेली आईसक्रीम और आखिर में बेचारी सिर्फ जेली बन कर रह गई। शम्मी भाई के नाम इतने बरसों बाद भी ,लॉन की घास और बंगले की दीवारों से लिपटी बेल -लताओं की तरह चिरंतन और अमर हैं।

  ग्रामोफोन के घूमते हुए तवे पर फूल-पत्तियां उग आती है, एक आवाज उन्हें अपने नरम, नंगे हाथों से पकड़कर हवा में बिखेर देती है, संगीत के सुर झाड़ियों में हवा से खेलते हैं, घास के नीचे सोई हुई भूरी मिट्टी पर तितली का नन्हा दिल धड़कता है... मिट्टी और घास के बीच हवा का घोंसला काँपता है....और ताश के पत्तों पर जेली और शम्मी भाई के सिर झुकते हैं.. उठते हैं.. मानों वे दोनों चार आँखों से घिरी सांवली झील में एक -दूसरे की छायाएं देख रहे हों।

  और शम्मी भाई जो बात कहते हैं उस पर विश्वास करना , न करना कोई माने नहीं रखता। उसके सामने जैसे सब कुछ छूट जाता है, सब कुछ खो जाता है.. और कुछ ऐसी चीजें हैं जो चुप रहती हैं.. और जिन्हें जब रूनी रात को सोने से पहले सोचती है तो लगता है कि कहीं एक गहरा , धुंधला-सा गड्ढा है, जिसके भीतर वह फिसलते -फिसलते बच जाती है और नहीं गिरती है तो मोह रह जाता है न गिरने का। ... और जेली पर रोना आता है, गुस्सा आता है। जेली में क्या कुछ है कि शम्मी भाई जो उसमें देखते हैं, वह रूनी में नहीं देखते ? और जब शम्मी भाई जेली के संग रिकार्ड बजाते हैं, ताश खेलते हैं..(मेज के नीचे अपना पांव उसके पांव पर रख देते हैं) तो वह अपने कमरे की खिड़की के परदे के परे चुपचाप उन्हें देखती रहती है, जहां एक अजीब-सी मायावी रहस्यमयता में डूबा, झिलमिल सा सपना है और परदे को खोलकर पीछे देखना, यह क्या कभी नहीं हो पाएगा ?

    मेरा भी एक रहस्य है जो ये नहीं जानते , कोई नहीं जानता। रूनी ने आँखें मूँदकर सोचा, मैं चाहूं तो कभी भी मर सकती हूँ, उन तीन पेड़ों की झुरमुट के पीछे, ठंडी गीली घास पर, जहां से हवा में डोलता हुआ एरियल पोल दिखाई देता है।

  हवा में उड़ती हुई शम्मी भाई की टाई, उनका हाथ, जिसकी हर अँगुली के नीचे कोमल सफेद खाल पर लाल-लाल गड्ढे उभर आए थे, छोटे-छोटे चांद-से गड्ढे,जिन्हें अगर छुओ, मुट्ठी में भींचो, हल्के -हल्के से सहलाओ, तो कैसा लगेगा ? सच कैसा लगेगा ?   किंतु शम्मी भाई को नहीं मालूम कि वह उनके हाथ को देख रही है, हवा में उड़ती हुई उनकी टाई, उनकी झिपझिपाती आँखों को देख रही है।

   ऐसा क्यों लगता है कि एक अपरिचित डर की खट्टी -खट्टी-सी खुश्बू उसे अपने में धीरे-धीरे घेर रही है, उसके शरीर के एक-एक अंग की गांठ खुलती जा रही है, मन रुक जाता है और लगता है कि लॉन से बाहर निकल कर वह धरती के अंतिम छोर तक आ गई है और उसके परे केवल दिल की धड़कन  है, जिसे सुनकर उसका सिर चकराने लगता है (क्या उसके संग ही यह होता है या जेली के संग भी ?)

  - तु्म्हारी एल्बम कहां है ? शम्मी भाई धीरे से उसके सामने आकर खड़े हो गए। उसने घबराकर शम्मी भाई की तरफ देखा, वह मुस्करा रहे थे।

  - जानती हो, इसमें क्या है ? -शम्मी भाई ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। रूनी का दिल धौंकनी की तरह धड़कने लगा। शायद शम्मी भाई वही बात कहने वाले हैं, जिसे वह अकेले में, रात को सोने से पहले कई बार मन ही मन सोच चुकी है। शायद इस लिफाफे के भीतर एक पत्र है, जो शम्मी भाई ने चुपके से उसके लिए, केवल उसके लिए लिखा है। उसकी गर्दन के नीचे फ्रॉक के भीतर से ऊपर उठती हुई कच्ची गोलाइयों में मीठी-मीठी-सी सुइयां चुभ रहीं हैं मानों शम्मी भाई की आवाज ने उसकी नंगी पसलियों को हौले से उमेठ दिया हो। उसे लगा, चाय की केतली की टीकोजी पर जो लाल-नीली मछलियाँ काढ़ी गईं हैं वे अभी उछल कर हवा में तैरने लगेंगी और शम्मी भाई सब कुछ समझ जाएंगे.. उनसे कुछ भी न छिपा रहेगा।

  शम्मी भाई ने वह नीला लिफाफा मेज पर रख दिया और उसमें से टिकट निकालकर मेज पर बिखेर दिए।

- ये तु्म्हारी एल्बम के लिए हैं...

वह एकाएक कुछ समझ नहीं सकी। उसे लगा, जैसे उसके गले में कुछ फंस गया है उसकी पहली और दूसरी सांस के बीच एक खाली अंधेरी खाई खुलती जा रही है।

जेली जो माली के फावड़े से क्यारी खोदने में जुटी थी, उसके पास  आकर खड़ी हो गई और अपनी हथेली हवा में फैलाकर बोली -देख रूनी, मेरे हाथ कितने लाल हो गए हैं।

-  रूनी ने अपना मुंह फेर लिया , वह रोएगी , बिलकुल रोएगी चाहे जो कुछ हो  जाए..

चाय खत्म हो गई थी। मेहरुन्निसा ताश और  ग्रामोफोन भीतर ले गई और जाते -जाते कह गई कि अब्बा उन सबको भीतर आने के लिए कह रहे हैं। किन्तु रात होने में अभी देर थी, और शनिवार को इतनी जल्दी भीतर जाने के लिए किसी के मन में कोई उत्साह नहीं था। शम्मी भाई ने सुझाव दिया कि कुछ देर के लिए वाटर रिजर्वायर तक घूमने चलें ? उस प्रस्ताव पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी .. और वे कुछ ही मिनटों में बंगले की सीमा पार करके मैदान की उबड़खाबड़ जमीन पर चलने लगे।

चारों ओर दूर-दूर तक भूरी-सूखी मिट्टी के ऊँचे-नीचे टीलों और ढूहों के बीच बेरों की झाड़ियां थीं, छोटी चट्टानों के बीच सूखी घास उग आई थी..सड़ते हुए पीले
पत्तों से एक अजीब नशीली-सी बोझिल कसैली गंध आ रही थी... धूप की मैली तहों पर बिखरी -बिखरी सी हवा थी।

शम्मी भाई सहसा चलते-चलते ठिठक गए।

- रूनी कहां है?
- अभी तो हमारे आगे-आगे चल रही थी..जेली ने कहा । उसकी सांस ऊपर चढ़ती है और बीच में टूट जाती है।

दोनों की आँखें मैदान के चारों ओर घूमती हैं.. मिट्टी के ढूहों पर पीली धूल उड़ती है। ... लेकिन रूनी वहां नहीं है, बेर की सूखी , मटियाली झाड़ियां  हवा में सरसराती हैं लेकिन रूनी वहां नहीं है। .... पीछे मुड़कर देखो, तो पगडंडियों के पीछे पेड़ों के झुरमुट में बंगला छिप गया है, लॉन की छतरी छिप गई है....केवल उनके शिखरों के पत्ते दिखाई देते हैं.. और दूर ऊपर फुनगियों का हरापन सफेद चांदी में पिघलने लगा है। धूप की सफेदी पत्तों से चांदी की बंदों -सी टपक रही है।

वे दोनों चुप हैं.. शम्मी भाई पेड़ की टहनी से पत्थरों के इर्द-गिर्द टेढी-मेढी आकृतियां खींच रहे हैं। जेली एक बड़े से चौकोर पत्थर पर रुमाल बिछाकर बैठ गई है। दूर मैदान के किसी छोर से स्टोन कटर मशीन का घरघराता स्वर सफेद हवा में तिरता आता है, मुलायम रुई में ढकी हुई आवाज की तरह,जिसके नुकीले कोने झर गए हैं।

- तुम्हें यहां आना बुरा तो नहीं लगता ?- शम्मी भाई ने धरती पर सिर झुकाए धीमें स्वर में पूछा।

- तुम झूठ बोले थे-जेली ने कहा।

- कैसा झूठ, जेली ?

- तुमने बेचारी रूनी को बहकाया था, अब वह न जाने कहां हमें ढूंढ रही होगी ?

- वह वाटर रिजर्वायर की ओर गई होगी, कुछ ही देर में वापस आ जाएगी- शम्मी भाई उसकी ओर पीठ मोड़े टहनी से धरती पर कुछ लिख रहे हैं।

जेली की आँखों पर एक छोटा सा बादल उमड़ आया है- क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या जिंदगी में कभी कुछ नहीं होगा ?  उसका दिल रबर के छल्ले के मानिंद खिंचता जा रहा है... खिंचता जा रहा है।

- शम्मी तुम यहां मेरे संग क्यों आए ? और वह बीच में ही रुक गई। उसकी पलकों पर रह -रहकर एक नरम-सी आहट होती है, और वे मुंद जातीं हैं.. अंगुलियां स्वयं -चलित सी मुट्ठी में भिंच जाती हैं, फिर अवश -सी आप ही आप खुल जातीं हैं।

- जेली सुनो..

शम्मी भाई जिस टहनी से जमीन को कुरेद रहे थे, वह टहनी काँप रही है। शम्मी भाई के इन दो शब्दों के बीच बरसों, सदियों के पुराने, खामोश पत्थर,कितनी उदास हवा है और मार्च की धूप है जो इतने बरसों बाद इस शाम को उनके पास आई है और फिर कभी नहीं लौटेगी। शम्मी भाई ..प्लीज.. जो कुछ कहना है, अभी कह डालो,इसी क्षण कह डालो,क्या आज शाम कुछ नहीं होगा,क्या जिंदगी में कभी कुछ नहीं होगा ?

वे बंगले की तरफ चलने लगे, ऊबड़खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायाएं ढलती हुई धूप से सिमटने लगीं। ठहरो.. बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी हुई रूनी के होंठ फड़क उठे, ठहरो... एक क्षण ... लाल-भुरभुरे पत्तों की ओट से भूला हुआ सपना झांकता है, गुनगुनी-सी सफेद हवा, मार्च की पीली धूप, बहुत दिन पहले सुने हुए रिकार्ड की जानी-पहचानी ट्यून, जो चारो ओर फैली घास के तिनकों पर बिछल गई है.. सब कुछ इन दो शब्दों पर थिर हो गया है, जिन्हें शम्मी भाई ने टहनी से धूल कुरेदते हुए धरती पर लिख दिया था - 'जेली ...लव '

जेली ने उन शब्दों को नहीं देखा। इतने बरसों बाद आज भी जेली को नहीं मालूम कि इस शाम शम्मी भाई ने कांपती टहनी से जेली के पैरों के पास क्या लिख दिया था। आज इतने लंबे अरसे बाद समय की धूल इन शब्दों पर जम गई है। शम्मी भाई,वह और जेली तीनों एक दूसरे दूर दुनिया के अलग-अलग कोनों में चले गए हैं, किन्तु आज भी रूनी को लगता है कि मार्च की उस शाम की तरह वह बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी खड़ी है, ( शम्मी भाई समझे थे कि वह वाटर रिजर्वायर की ओर चली गई थी ) किंतु वह सारे समय झाड़ियों के पीछे साँस रोके , निस्पंद आँखों से उसे देखती रही थी, उस पत्थर को देखती रही जिस पर कुछ देर पहले शम्मी भाई और जेली बैठे हुए थे। आँसुओं के पीछे सब कुछ धुंधला -धुंधला-सा हो जाता है... शम्मी भाई का कांपता  हाथ, जेली की अधमुँदी-सी आँखें , क्या वह उन दोनों की दुनिया में कभी प्रवेश नहीं कर पाएगी ?

कहीं सहमा-सा जल है, और उसकी छाया है,उसने अपने को देखा है और आँखें मूँद ली हैं। उस शाम की धूप के परे एक हल्का-सा दर्द है, आकाश के उस नीले टुकड़े की तरह जो आँसू के एक कतरे में ढरक आया था। इस शाम से परे बरसों तक स्मृति का उद्भ्रांत पाखी किसी सूनी घड़ी में ढकी हुई उस धूल पर मंडराता रहेगा, जहां इतना भर लिखा है- 'जेली ...लव '

उस रात जब उनकी नौकरानी मेहरुन्निसा छोटी बीवी के कमरे में गई तो स्तंभित-सी खड़ी रह गई। उसने रूनी को पहले कभी ऐसा न देखा था।

-छोटी बीवी ,आज अभी से सो गई ? मेहरू ने बिस्तर के पास आकर कहा ।

रूनी चुपचाप आँखें मूंदे लेटी है । मेहरू और पास खिसक आई। धीरे से उसके माथे को सहलाया- छोटी बीबी क्या बात है ?  

और तब रूनी ने अपनी पलकें उठा लीं , छत की ओर एक लंबे क्षण तक देखती रही, उसके पीले चेहरे पर एक रेखा खिंच आई .. मानों वह एक दहलीज हो जिसके पीछे बचपन सदा के लिए छूट गया हो..

- मेहरू,....बत्ती बुझा दे- उसने संयत , निर्विकार स्वर में कहा..देखती नहीं , मैं मर गई हूँ।