• 28 Apr, 2025

बाबूजी के बगैर.........

बाबूजी के बगैर.........

दीपक दीवान, ( एडवोकेट) ,रायपुर
दीपक दीवान, ( एडवोकेट) ,रायपुर 


• बाबूजी की पुण्यतिथि पर ..

बाबूजी के साथ मैंने 34 साल का समय गुजारा है.. 

और उनके बगैर.. 


23 साल .. 

कभी कभी लगता है कि उनके बगैर गुजारा हुआ समय 


उनके साथ गुजारे समय का पीछा कर रहा है.. 

एक दिन ऐसा आएगा.. जब उनके साथ गुजारा समय 


उनके बगैर गुजारे समय से कम होता जाएगा.. 

बाबूजी परिवार का हौसला थे.. 

जब तक वो थे तब तक किसी बात की चिंता नहीं थी.. 

लगता था.. कि कैसी भी समस्या आएगी.. 

बाबूजी.. उसे हल कर लेंगे.. 

मैंने अपने जीवन में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं देखा.. 

जिनसे बाबूजी के मतभेद हों... 

जिन्हें बाबूजी पसंद करते थे .. उनसे खुल कर मिलते थे.. 

जिन्हें कम पसंद करते थे.. उनसे मिलते तो थे बस 


आत्मीयता थोड़ी कम होती थी.. 

लेकिन मतभेद तो बिलकुल नहीं... 

उनकी मित्र मण्डली में उनके दफ्तर के लोग होते थे.. 

उन्होंने कभी अपने ऑफिस को ऑफिस नहीं कहा 

वे यही शब्द "दफ्तर" ही प्रयोग में लाते थे.. 

आज याद आ गया तो लिख दिया.. 

कभी कभी लगता है.. कि बाबूजी कुछ मिनट कुछ सेकंड्स के लिए 

आ जाएँ.. सब कुछ देख कर चले जाएँ.. 

कि सब कुछ ठीक चल रहा है ... या नहीं चल रहा है.. जैसा भी वो कहें.. 
 

जब भी नीचे लिखी इस कविता को जो मेरी लिखी नहीं है.. 

मै पढ़ता हूँ तो इसे अपने और बाबूजी के बहुत करीब पाता हूँ.. 

कि .... 

दुनिया के किसी भी सम्बन्ध में,
अगर सबसे कम बोल-चाल है,
तो वो है पिता-पुत्र की जोड़ी में ।

एक समय तक दोनों अंजान होते हैं,
एक दूसरे की बढती उम्र से,
फिर धीरे से अहसास होता है,

हमेशा के लिए बिछड़ने का ।

जब बेटा,
अपनी जवानी पार कर,
अगले पड़ाव पर चढ़ता है,

तो यहाँ,
इशारों से बाते होने लगती हैं,

या फिर,
इनके बीच मध्यस्थ का दायित्व निभाती है माँ ।

पिता अक्सर माँ से कहता है,
जा, "उससे कह देना"

और,

पुत्र अक्सर अपनी माँ से कहता है,
"बाबूजी से पूछ लो ना"

इन्हीं दोनों धुरियों के बीच,
घूमती रहती है माँ ।

जब एक,
कहीं होता है,
तो दूसरा,
वहां नहीं होने की,
कोशिश करता है,

शायद,
पिता-पुत्र नज़दीकी से डरते हैं ।

जबकि,
वो डर नज़दीकी का नहीं है,
डर है,
उसके बाद बिछड़ने का ।

भारतीय पिता ने शायद ही किसी बेटे को,
कभी कहा हो,
कि बेटा,
मैं तुमसे बेइंतहा प्यार करता हूँ ।

पिता के अनंत रौद्र का उत्तराधिकारी भी वही होता है,
क्योंकि,

पिता, हर पल ज़िन्दगी में,
अपने बेटे को,
अभिमन्यु सा पाता है ।

पिता समझता है,
कि इसे सम्भलना होगा,
इसे मजबूत बनना होगा,
ताकि,

ज़िम्मेदारियो का बोझ,
इसका वध न कर सके ।

पिता सोचता है,
जब मैं चला जाऊँगा,

तब,
रह जाएगा सिर्फ ये,

जिसे, हर-दम, हर-कदम,
परिवार के लिए,
आजीविका के लिए,

चुनौतियों से,
सामाजिक जटिलताओं से,
लड़ना होगा ।

पिता जानता है कि,
हर बात,
घर पर नहीं बताई जा सकती,
इसलिए इसे,

खामोशी से ग़म छुपाने सीखने होंगें ।

परिवार के विरुद्ध खड़ी,
हर विशालकाय मुसीबत को,
अपने हौसले से,
छोटा करना होगा।

ना भी कर सके, तो ख़ुद का वध करना होगा

इसलिए,
वो कभी पुत्र-प्रेम प्रदर्शित नहीं करता,

पिता जानता है कि,
प्रेम कमज़ोर बनाता है ।

फिर कई बार उसका प्रेम,
झल्लाहट या गुस्सा बनकर,
निकलता है,

वो जानता है,
उसकी मौजूदगी की,
अनिश्चितताओं को ।

पिता चाहता है,
कहीं ऐसा ना हो कि,
इस अभिमन्यु का वध,

उसके द्वारा दी गई,
कम शिक्षा के कारण हो जाये,

पिता चाहता है कि,
पुत्र जल्द से जल्द सीख ले,
वो गलतियाँ करना बंद करे,

क्योंकि गलतियां सभी की माफ़ हैं,
पर मुखिया की नहीं,

फिर,
वो समय आता है जबकि,
पिता और पुत्र दोनों को,
अपनी बढ़ती उम्र का,
एहसास होने लगता है,


पिता की सीख देने की लालसा, और, पुत्र का,

उस भावना को नहीं समझ पाना,
वो सौम्यता भी खो देता है,

यही वो समय होता है जब,
बेटे को लगता है कि,
उसके पिता ग़लत है,


सभी को बेटे का इंतज़ार करती हुई
माँ तो दिखती है, पर,

पीछे रात भर से जागा,
पिता नहीं दिखता,

ये समय चक्र है,
कब समझेंगे बेटे,

कब समझेंगे बाप,

जब, जिन हाथों की
उंगलियां पकड़,

पिता ने चलना सिखाया था,
वही हाथ,
लकड़ी के ढेर पर पड़े पिता का
अंतिम संस्कार करते हैं.....

ये कोई पुरुषवादी समाज की चाल नहीं है,

ये सौभाग्य भी नहीं है,

ये होता है,
हो रहा है,
होता चला जाएगा ।

जो नहीं हो रहा,
और जो हो सकता है,


वो ये, कि,
हम जल्द से जल्द, कहना शुरु कर दें,


हम आपस में, कितना प्यार करते हैं.


हे मेरे महान पिता..
मेरे गौरव,
मेरे आदर्श,
मेरा संस्कार,
मेरा स्वाभिमान,
मेरा अस्तित्व...
मैं न तो इस क्रूर समय की गति को समझ पाया..

और न ही,

आपको अपने दिल की बात, कह पाया......🙏